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________________ 66 आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह (पद्धरि) जय पंचमेरु जग में महान, शाश्वत अकृत्रिम तीर्थ जान। तीर्थंकर का जन्माभिषेक, इन्द्रादि करें उत्सव विशेष ॥ जय प्रथम सुदर्शन मेरु सार, स्थित सु द्वीप जम्बू मंझार । लख योजन उन्नत अति विशाल, शोभे भूपर वन भद्रशाल॥ ऊपर चढ़ पाँच शतक योजन, नंदन वन दीखे मनमोहन । ऊँचा साढ़े बासठ सहस्र, योजन सोहे वन सोमनस ।। तहँ तैं छत्तीस सहस योजन, गिरशीस लसे शुभ पांडुक वन । चारों दिशि के वन में सुन्दर, शोभे चैत्यालय श्री जिनवर ॥ इक-इक में इकशत आठ लसे, जिनबिम्ब लखत दुर्मोह नशे। ज्यों दर्पण में तनरूप लखे, त्यों आत्मस्वरूप प्रत्यक्ष दिखे। फिर विजय-अचल धातकीखण्ड, पूरव-पश्चिम दिशि अतिउतंग। मंदर विद्युन्माली सु-नाम, पुष्कर में राजे अति ललाम॥ योजन चौरासी सहस उतंग, चारों मेरु सोहे अभंग । तहँ सोलह-सोलह चैत्यालय, मनहर सुखकर श्रीजिन आलय ।। इन्द्रादिक सुर अरु विद्याधर, चारण ऋद्धिधारी मुनिवर। प्रभु भाव वंदना करूँ सार, निज भाव माँहिं मैं भी निहार ।। पू→ वंदूं आनन्दित हो, तासों विधि बंधन खंडित हो। भोगों की चित में दाह नहीं, इन्द्रादिक पद की चाह नहीं॥ अकृत्रिम शुद्धातम साधू, अविनाशी शिवपद आराधूं। अपना पद अपने में पाऊँ, चरणों में बलिहारी जाऊँ।। ॐ ह्रीं श्री पंचमेरुसम्बन्धि अशीतिजिनचैत्यालयस्थजिनबिम्बेभ्यः जयमालाअर्घ्यं । (दोहा) मंगलकर होवे सदा, जिनपूजा जग माँहिं। अपनो भाव सुधारि के भवि निश्चय शिव पाँहिं। ॥ पुष्पाञ्जलिं क्षिपामि ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003170
Book TitleAdhyatmik Poojan Vidhan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra
PublisherKanjiswami Smarak Trust Devlali
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Worship, Religion, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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