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________________ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म (४) जैन संस्थानों को प्रार्थिक सहयोग दिलाने के लिए आप सदा प्रयत्नशील रहे । शिष्या परिवार प्रादर्श प्रवर्तनी साध्वी श्री देवश्री जी ने छोटो दीक्षा साध्वी चंदनश्री जी से ली और बड़ी दीक्षा साध्वी कुंकुमश्री जी के नाम से हुई । इसलिए आप कुंकुमश्री जी की शिष्या कहलाये । १. देवश्री जी की शिष्याएं- श्री दानश्री जी, श्री दयाश्री जी, श्री क्षमाश्री जी, हेम श्री जी, विवेकश्री जी, चन्द्रश्री जी, चरणश्री जी, चित्त श्री जी, धनश्री जी, चतुरश्री जी, ललितश्री जी, पद्मश्री जी, जिनेन्द्र श्री जी, महेन्द्रश्री जी, शीलवती श्री जी, (उपसंपदा ग्रहण की) । ५२८ श्राप की इन उपर्युक्त शिष्यानों की शिष्यानों, प्रशिष्यानों की संख्या लगभग पांच सौ होगी । जो निरतिचार चरित्र का पालन करते हुए सारे भारत में जैनधर्म की प्रभावना करते हुए स्व-पर कल्याण में अग्रसर हो रही है । इनमें से कई साध्वियां तो ऐसी हैं जो प्रोड़ ज्ञानसंपन्न, चारित्रचूड़ामणि होने के साथ-साथ जैनशासन की उन्नति, प्रभावना, प्रचार तथा प्रसार करने में द्वितीय हैं । जैसे कि जैनभारती, कांगड़ा तीर्थ उद्धारिका, महत्तरा साध्वी श्री मृगावती श्री जी, इनकी शिष्या साध्वी सुव्रता की जी शास्त्री साहित्यरत्न तथा जैनदर्शन की प्रौढ़ विदूषी हैं । इसी प्रकार साध्वी श्री जसवन्तश्री जी, साध्वी श्री प्रियदर्शनाश्री जी बी० ए० प्रभाकर तथा संस्कृत, प्राकृत, गुजराती आदि भाषाओं की ज्ञाता एवं जैनदर्शन की विदूषी हैं। साध्वीश्री निर्मला श्री श्रादि भी ज्ञान और चारित्र में अद्वितीय है । इसी प्रकार अनेक ऐसी साध्वियाँ भी हैं जो उग्र तपस्विनी हैं । जैनभारती, कांगड़ातीर्थोद्धारिका, महत्तरा, साध्वीरत्न श्री मृगावतीश्री जी श्रादि १ - साध्वी श्री शीलवती जी महाराज सौराष्ट्र प्रांत के राणपरदा गांव में वि. सं १६५० में शिवकुं वर बहन का जन्म हुआ । बाल्यावस्था से ही प्रतिभा-शालिनी, व्यवहारकुशल एवं सहनशील थीं । यद्यपि शिक्षा प्राप्त करने का अवसर उन्हें घर पर नहीं मिल पाया तथापि धार्मिक संस्कार बचपन से ही उनमें अंकुरति हो गये थे । सरधारग्राम (राजकोट) निवासी बम्बई के कपड़े के व्यापारी दसा श्रीमाली श्री डूंगरसी भाई संघवी के साथ उनका विवाह हुआ था । दाम्पत्य जीवन की सब सुखसुविधायें प्राप्त थीं, पति का असीम प्यार भी उन्हें प्राप्त था । उनके दो पुत्र व दो पुत्रियाँ थीं । सब प्रकार से सुखी जीवन था । परन्तु यकायक दुःखों का पहाड़ उन पर टूट पड़ा। एक पुत्र व एक पुत्री काल-कवलित हो गये । इस दारुण दुःख को अभी भूल भी न पायी थी कि वि० सं० १९८४ को उनके पति का देहांत भी हो गया । अब वे अपने ससुराल के गाँव सरधार आ गई । लगता था कि विधाता पग-पग पर उनको परीक्षा लेने पर ही तुला हुआ है । यहां श्राने पर परिवार का एक मात्र आधार दूसरा पुत्र भी १६ वर्ष की आयु में चल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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