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________________ प्रवर्तनी देवश्री जी विषम समय में साधु-साध्वी अन्यत्र विहार कर सकते हैं । चारित्र की रक्षा के लिए जैनशास्त्रों में 'अपवाद सेवन' का विधान है । अतएव ऐसे विषम समय में प्राचार्यदेव समस्त साधु-साध्वियों के धर्म और चारित्र की रक्षा की दृष्टि से चतुर्मास में पाकिस्तान से भारत प्राना शास्त्रसम्मत तथा दूरदर्शिता पूर्ण था । पाकिस्तान से पाने के बाद हमारी चारित्रनायिका का स्वास्थ्य एकदम गिरगया श्रौर घूमना-फिरना एकदम बन्द हो गया । आचार्यश्री दो तीन दिन के अन्तर में आप को दर्शन देने के लिए पधारते रहे । ५२७ स्वर्ग गमन मिति प्रासोज सुदि ६ को दोपहर के दो बजे प्रापने प्राचार्य श्री के पास दर्शन देने के लिए अपनी शिष्या बसंतश्री को भेजा और कहलाया कि आज का दिन इस देह को त्याग करने का श्रा गया हैं । प्राचार्य भगवान अपने दो शिष्यों के साथ दर्शन देने को पधारे उस समय वह सिद्धगिरिसिद्धगिरि का नाम जप रही थी । गुरुदेव को देखते ही आपने हाथ जोड़ कर वंदना की लौर गुरुदेव ने आपको मांगलिक पाठ सुनाया और उनके मस्तक पर वासक्षेप डाला । वि० सं० २००४ की आसोज सुदी ६ को संध्या के ६ बजे अर्हन्- अर्हन् शब्दों का उच्चारण करते-करते इस नश्वर देह का त्याग कर स्वर्गगमन किया। दूसरे दिन सकल पंजाब श्री संघ ने आप की देह का विमान रूपी पालखी में लेजाकर बाजे-गाजे के साथ अग्निसंस्कार किया । आपके जीवन की विशेष घटनाएं ( १ ) तपस्या – प्रापका जीवन तपस्या से श्रोतप्रोत था । श्राप अनेक प्रकार के अभिग्रह धारण करते क्यों कि इच्छात्रों के निरोध को ही तप कहा हैं । अनेकों उपवास, बेले, तेले, अट्ठायां, बिल की ओलियाँ आदि तप किये। परन्तु उनकी निश्चित संख्या नहीं मिलती । यह बात तो निश्चित कि आप एक महान तपस्विनी थीं । प्राप ने अंतिम श्वासों तक महान तपस्या करते हुए महान आदर्श उपस्थित किया । (२) विद्योपासना - दीक्षा लेने से लेकर आप सर्वदा ज्ञानार्जन में संलग्न रहती । नव-नव ज्ञान प्राप्त करने से कभी नहीं चूकते थे । वृद्धावस्था में संघ आपको कोई भी विद्वान मिल पाता उसके पास निःसंकोच विद्याध्ययन करने लग जाते । श्राचार्य श्री के प्रवचनों में उपस्थित होकर प्रवचन के समय उस शास्त्र के पन्नों को खोलकर प्रवचन श्रवण करते थे और जहाँ-जहाँ शंका उपस्थित होती थी वहाँ-वहाँ प्रश्नों से समाधान कर लेते थे । प्रपने साथ की सब शिष्याओं प्रशिष्यात्रों को स्वयं भी वाचना देते थे । गीतार्थ साधुओं से भी वाचना दिलाते थे और विद्वान पंडितों से भी विद्याभ्यास कराते थे । किसी भी साध्वी को निठल्ले नहीं बैठने देते थे । उनके चारित्र दृढ़ता पूर्वक निर्वाह करने के लिये सदा-सर्वदा पूरा-पूरा ध्यान रखते थे । (३) साधनहीन श्रावक-श्राविकाओं का स्थिरीकरण - श्रावक-श्राविकाओ की नाजुक परिस्थिति को जानने पर प्राप का हृदय दया से भाद्रित हो उठता था और गुप्त रूप से साधन सम्पन्न गृहस्थों द्वारा उनकी समस्याओं से उद्धार करा देते थे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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