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________________ दिगम्बर पंथ-एक सिंहाएलोकन ३३३ ४१. लब्धिसम्पन्न तथा विद्याधर मुनि मानु- ४१. लब्धिधारी तथा विद्याधर मुनि मानुषोत्तर षोत्तर पर्वत से आगे भी जा सकते हैं। पर्वत से आगे नहीं जा सकते । ४२. केवली के १८ दोष ४२. केवली के १८ दोष -- (१) मिथ्यात्त्व, (२) राग, (३) द्वष, (१) भय, (२) द्वेष (३) राग, (४) मोह, (४) प्रविरति, (५) कामवासना (६) (५) चिंता, (६) अरति, (७) मद, हास्य, (७) रति, (८) प्ररति, (६) भय, (८) विषाद, (९) खेद (ये नौ मोहनीय (१०) जुगुप्सा, (११) शोक (ये ११ कर्म के क्षय से), (१०) निद्रा (दर्शनादोष मोहनीय कर्म के क्षय से), (१२) वर्णीयकर्म के क्षय से), (११) विस्मय निद्रा, (दर्शनावरणीय कर्म के क्षय से), (ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय से, (१२) अज्ञान (ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय से), स्वेद, (१३) जरा (नाम कर्म के क्षय से,) (१४) दानान्तराय, (१५) लाभान्तराय, (१४) भूख, (१५) प्यास, (१६) रोग (१६) भोगान्तराय,(१७) उपभोगान्त राय (वेदनीय कर्म के क्षय से), (१७) जन्म, (१८) वीर्यन्त राय, (ये ५ अन्तराय कर्म (१८) मृत्यु (आयु कर्म के क्षय से), सिद्ध के क्षय से), चार घातिय कर्मो के क्षय (मुक्त जीव) इन अठारह दोषों से रहित से केवली इन १८ दोषों से मुक्त होते हैं। होते हैं न कि सशरीरी केवली। क्योंकि आयु, नाम, गोत्र, वेदनीय आदि पाठों कर्म सिद्ध के क्षय होते हैं । केवली के नहीं । इस प्रकार अन्य भी अनेक मतभेद हैं जिनका समावेश ८४ मतभेदों में हो जाता है। अंग प्रविष्ट, प्रागम-द्वादशांग १. आयाराँग (प्राचारांग)1 १. पायारो (प्राचारांग) २. सूयगडांग (सूत्रकृतांग) २. सूदयंद (सूत्रकृतांग) ३. ठाणांग (स्थानांग) ३ ठाणं (स्थानांग) ४. समवायांग (समवायांग) ४. समवायो (समवायांग) ५. विवाह पण्णत्ति (व्याख्या प्रज्ञप्ति) ५. विवाह पण्णत्ति (व्याख्या प्रज्ञप्ति) ६. णायाधम्मक हा (ज्ञातृधर्मकांग) ६. णाहधम्मकहा (ज्ञातृधर्मकथांग) ७. उवासगदसानो (उपासक दशांग) ७. उवासयज्झयणं (उपासकाध्ययनांग) ८. अंतगढदसाप्रो (अन्तकृतदशांग) ८. अंतयडदसा (अन्तकृतदशांग) ६. अणुत्तरोववाइदसायो (अणुत्तरोपयातिक ६. अणुत्तरोववादियदसा (अणुत्त रोयपातिकदशांग) दशांग) १०. पण्णावय (प्रश्नव्याकरणांग) १०. पण्हवायरण (प्रश्न व्याकरणांग) ११. विवाग (विपाकसूत्रांग) ११. विवागसुत्तं (विपाकसूत्रांग) १२. दिट्ठिाय (दृष्टिवादांग) १२. दिठिवादो (दृष्टिवादांग) अंग वाह्य अंग वाह्य १. सामाइय (सामायिक) १. सामाइय (सामायिक) २. चउवीसत्थाप्रो (चतुर्विंशति-स्तव) २. चउवीसत्थरो (चतुर्विंशतिस्तव) ३. वंदणय (वन्दनक) ३. वंदणा (वंदना) 1. समवायांग सूत्र स्टीक समवाय १३६ 2. धवला टीका पृष्ठ ६६-१०६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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