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________________ २७४ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म कराया। सर्वसाधारण प्रजा केलिये सात सौ (७००) दानशालाएं स्थापित की। सातों क्षेत्रों (साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका, मंदिर, मूर्ति और जैनप्रवचन-श्रुतज्ञान) को पुष्ट बनाया। अनार्य देशों में भी धर्मोपदेशक भेजकर जैनधर्म का व्यापक प्रचार किया। सर्वसाधारण प्रजा के लिये दो हजार धर्मशालाओं, ग्यारह हज़ार बावड़ियों, तथा कुओं का निर्माण कराया। प्राचार्य प्रार्य सुहस्ति (सम्राट् सम्प्रति के धर्मगुरु) वीर सं० २९१ (ई० पू० २३६) में स्वर्गस्थ हुए । आर्य सुहस्ति की एक सौ वर्ष की आयु थी। प्रो० जयचन्द्र विद्यालंकार का कथन है कि सम्प्रति के समय में उत्तर-पश्चिम के अनार्य देशों में भी जैनधर्म के प्रचारक भेजे गये और वहां जैन-श्रमणों के लिये अनेक विहार (मंदिर उपाश्रय प्रादि) स्थापित किये गए। अशोक और संप्रति दोनों के कार्यों से भारतीय संस्कृति विश्व संस्कृति बन गई और आर्यावर्त की सीमाओं से बाहर तक पहुंच गई। इसने प्रसूर्यम्पश्मा राजरानियों, राजकुमारियों, राजकुमारों और सामंतों को भी जनश्रमण-श्रमणियों के वेश में दूरदूर देशों में विहार कराकर चीन, ब्रह्मा, सीलोन (लंका) अफ़ग़ानिस्तान, काबुल, बिलोचिस्तान, नेपाल, भूतान, तुर्किस्तान आदि में भी जैनधर्म का प्रचार कराया। (अपने देश भारत में तो इसका साम्राज्य था ही) कई विद्वानों का यह भी मत है कि अशोक के नाम से प्रचलित शिलालेखों में से अनेक सम्राट सम्प्रति द्वारा उत्कीर्ण कराये गये हो सकते हैं । अशोक को अपने पौत्र से अनन्य स्नेह था, प्रतएव जिन अभिलेखों में 'देवानां पियस्स पियदस्सिन लाजा' (देवताओं के प्रिय प्रियदर्शिन राजा) द्वारा उनके अंकित कराये जाने का उल्लेख है ; वे अशोक के न होकर सम्प्रति के होने चाहिये । ऐसा अधिक संभव है। क्योंकि 'देवानां प्रिय' तो अशोक को स्वयं की उपाधि थी। अतएव सम्प्रति ने अपने लिये 'देवानां प्रियस्य प्रियदशिन' उपाधि का प्रयोग किया है। विशेषकर जो अभिलेख जीव हिंसा-निषेध और धर्मोत्सवों से सम्बन्धित हैं; उनका सम्बन्ध सम्प्रति से जोड़ा जाता है । इस नरेश द्वारा धर्म राज्य के सर्वोच्च प्रादर्शों के अनुरूप एक सदाचारपूर्ण राज्य स्थापित करने के प्रयत्नों के लिये इस राजर्षि की तुलना गौरव के उच्च शिखर पर आसीन इजराईल सम्राट दाउद और सुलेमान के साथ; और धर्मको क्षुद्र स्थानीय सम्प्रदाय की स्थिति से उठाकर विश्वधर्म बनाने के प्रयास के लिये ईसाई सम्राट कान्स्टेंटाइन के साथ की जाती है । अपने दार्शनिक एवं पवित्र विचारों केलिये इसकी तुलना रोमन सम्राट मार्शलन के साथ की जाती है। इसकी सीधी सरल पुनरोक्तियों से पूर्ण विज्ञप्तियों में क्रमावेल की शैली ध्वनित होती है। एवं अन्य अनेक बातों में वह खलीफा अमर और अकबर महान की याद दिलाता है। विश्व के सर्वकालीन महान 1. बृहत्कल्प सूत्र उ० १ नियुक्ति गाथा ३२७५-८६ । 2. बौद्धों के समान जनस्तूपों की भी जैनधर्म के अनुयायियों ने स्थापनाएं की हैं, जैसे मथुरा का सुपार्श्वनाथ का स्तूप, हस्तिनापुर तक्षशिला आदि के जैनस्तूप । पर खेद का विषय है कि पुरातत्त्ववेत्तात्रों की अनभिज्ञता के कारण इन को बौद्धस्तूप मान कर जैनइतिहास के साथ खिलवाड़ की गई है। इस भूल का एक कारण यह भी है कि हुएनसाग आदि चीनी बौद्ध यात्रियों ने या तो अज्ञानतावश अथवा बुद्धधर्म के दृष्टिराग से जहां भी कोई स्तूप देखा उसे झट अशोक स्तूप लिख दिया, फिर वह किसी भी धर्म सम्प्रदाय का क्यों न हो। उन्हीं का अनुकरण करते हुए बिना सूक्ष्म निरीक्षण किये प्राज के पुरातत्ववेत्ता भी भूल का शिकार हो रहे हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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