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________________ १०४ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म __ "महपूजायामिति धातोः क्वापि महः।” (राजेन्द्र ० भाग ६ पृ० १७०) आचारांग सूत्र की टीका में लिखा है कि-: "पूजा विशिष्ट काले क्रियते।" इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि स्तूपों में मूर्तियां होती थीं और उनकी पूजा भी होती थी। मेरी यह स्थापना शास्त्र प्रमाणों के अतिरिक्त पुरातत्त्व ने भी प्रमाणित कर दी है । यह दुर्भाग्य है कि जैनों से सम्बन्धित खुदाई का और उसके शिलालेखों आदि के वांचन का काम भारत में नहीं के बराबर हुआ है। पर मथुरा के कंकाली टीले का एक ज्वलंत प्रमाण जैनस्तूप सम्बन्धी प्राप्त है उसमें कितनी ही जैन मूर्तियां प्राप्त हुई है। जो ईसा पूर्व काल में श्वेतांबर जैनों ने स्थापित की थीं। जैन स्मारकों के बौद्ध होने का भ्रम कई उदाहरण इस बात के मिलते हैं कि वे स्मारक, मूर्तियाँ, मंदिर आदि जो असल में जैनों के हैं वे बौद्धों आदि के मान लिए गये हैं । एक कथा के अनुसार -आज से लगभग अठारह सौ वर्ष हुए कि महाराजा कनिष्क ने एक बार एक जैनस्तूप को भूल से बौद्ध स्तूप समझ लिया था। उस समय भी जब ऐसी भूल कर बैठते थे तब कुछ आश्चर्य नहीं कि आजकल के पुरातत्त्ववेत्ता भी जैन इमारतों के निर्णय का यश कभी-कभी बौद्धों को दे देते हैं । मेरे विचार से सर कनिधम ने कभी नहीं जाना कि बौद्धों से पहले अथवा बौद्धो के समय ही स्वभावतः जैनों ने भी स्तूप बनाये थे। जैन इतिहास की अच्छी तरह खोज के लिये पुरातत्त्ववेत्ताओं को चाहिए कि वे पहले जैन स्तूपों, स्मारकों आदि का गंभीर-तलस्पर्शी ज्ञान करें। हिन्दू अवतारों, बौद्धों की मूर्तियों, जैन तीर्थकरों की श्वेतांबर-दिगम्बर मान्यता में मूर्ति आदि कला में अन्तर, यक्षों-यक्षियों, देवी-देवताओं के स्वरूप,आकार का जैन हिन्दू और बौद्धों की मान्यता में अपनी-अपनी विशेषताओं का सांगोपांग ज्ञान प्राप्त करें। इन मूर्तियों में क्या समानता है और क्या अन्तर है इसका भी बड़ी सूक्ष्मता से जानकारी प्राप्त करें। तभी ये लोग जैन इतिहास की सत्य खोज कर पाएंगे। अब भी बहुत सी जैन इमारतें, मूर्तियां, शिलालेख धरती में दबे हुए हैं । एवं इधर-उधर बिखरे पड़े हैं जिनकी तरफ 1. विशेष विवरण के लिये देखिये 'जैना स्तूप एण्ड अधर ऐंटीक्वीटीज़ ग्राफ मथुरा । वीसेंट ए. स्मिथ (आर्कि पालोजिकल सर्वे आफ इंडिया न्यू इम्पिरियल सीरीज वाल्यूम २०)। अहिछत्रा में भी जैन स्तूप मिला है और उस में जैनमूर्तियां भी मिली हैं। इसी प्रकार मध्यप्रदेश में भी ईसा पूर्व ६०० वर्ष प्राचीन जैनमूर्तियां तथा जैनस्तूप मिले हैं। देखें (दी संडे स्टैंडर्ड हैद्राबाद एडीशन ता. १८. २, १९७६) Some of the ruined remains belong to the sixth century B. C. Idols of Hindu, Jain and Buddhist religions clearly marked for stupas have been found near about the monasteris and viharas. (S. S. 18-2-1979) 2. मथुरा के श्वेताम्बर जैन स्तूप जो सुपार्श्वनाथ के स्तूप के नाम से प्रख्याति प्राप्त था और जिसके अवशेष कंकाली टोले की खुदाई से प्राप्त हुए है। उन्हें पुरातत्त्व विभाग ने मथुरा, लखनऊ आदि अनेक पुरातत्त्व संग्रहालयो में सुरक्षित किया हुआ है। वहां ऐतिहासिक खोज के लिए अनेक बार हमें जाना पड़ा है। पर खेद का विषय है कि वहां के अधिकारी डायरेक्टरों आदि को भी इस विषय की विशेष जानकारी नहीं है कि वे जिज्ञासुओं की जिज्ञासा का संतोष कारक समाधान कर सकें । वे तो हमारे जैसों से समाधान पाने की ताक में रहते हैं। उन्हें यह भी मालूम नहीं है कि इस स्तूप तथा आस-पास के क्षेत्र से प्राप्त पुरातत्व सामग्री में मकित लेखों में वर्णित जैनाचार्य आदि किस परम्परा से सम्बन्ध रखते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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