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________________ १०३ पंजाब में ऐतिहासिक साधनों के प्रभाव का कारण जैन गुफाएं होनी चाहिये। सत्य-प्रतिज्ञ अशोक महाना, चन्द्रगुप्त मौर्य, संप्रति, खारवेल, नव नन्द, कांगड़ा नरेश आदि अनेक प्रतापी जैनमहाराजा,सम्राट हुए हैं जिनके समय में अनेक जैन गुफाओं, मंदिरों, तीर्थों और स्तूपों के निर्माण कराने करवाने के उल्लेख साहित्य और शिलालेखों में भरे पड़े हैं । तो भी इन बौद्ध यात्रियों ने किसी भी जैन-स्तूप अथवा जैन-गुफा आदि का उल्लेख नहीं किया । कवि कल्हण कृत काश्मीर का इतिहास राजतरंगिनी में भी वहां के जैन नरेशों द्वारा अनेक जैनस्तूपों के निर्माण का वर्णन मिलता है तो भी आज तक किसी पुरातत्त्ववेत्ता ने अपनी योग्यता का प्रदर्शन नहीं किया जो बौद्ध और जैन स्तूपों की अलग स्पष्ट पहचान कर पाये । यद्यपि जैन आगमों-जैन शास्त्रों में जैन-स्तूपों के निर्माण करने के उल्लेख ऋषभदेव के काल से लेकर आज तक विद्यमान है तो भी परातत्त्ववेत्ता आज तक इससे अनभिज्ञ हैं यह आश्चर्य की बात है। पाश्चात्य पुरातत्त्ववेत्तानों कनिधम आदि ने भी ऐसे घेरों को हमेशा बौद्ध धेरे कहा है। और जहां कहीं भी उनको टूटे-फूटे स्तूप मिले तब यही समझा कि इस स्थान का सम्बन्ध बौद्धों से है। ई. स. १८६७ में बुल्हर साहब के मथुरा के श्वेतांबर जैन स्तूप का पता लगा लेने के पश्चात् जब तक एक कथा शीर्षक अपना निबन्ध प्रकाशित नहीं किया था तब तक ऐसी ही भ्रांति चलती रही । जब यह कथा ई.स. १६०१ में प्रकाशित हुई तब से इतिहास के विद्यार्थियों को मालूम हुआ कि बौद्धों के समान वौद्ध काल के पहले से ही जैनों के स्तूप और घेरे बहुलता से मौजूद थे। परन्तु खेद का विषय है कि जमीन के ऊपर के स्तूपों में से आज तक देशी अथवा विदेशी, जैन अथवा जैनेतर किसी भी विद्वान ने जैन स्तूपों के विषय में शोध-खोज करने का साहस नहीं किया। स्तप के विषय में कुछ विचार स्तूप उल्टे कटोरे के आकार का होता है। यह किसी महापुरुष के दाह संस्कार के स्थान पर बनाया जाता था या सिद्धों अथवा तीर्थंकरों की मूर्तियों और चरण बिम्बों सहित उस आराध्य देव विशेष की पूजा आराधना के लिए निर्मित किया जाता था । स्तूप में तीर्थंकर और सिद्ध की प्रतिमा होने का स्पष्ट उल्लेख जैन ग्रंथ तिलोयपण्णत्ति में है । यथा-- "भवन खिदि-प्पणिधीसु वीहिं पडि होति णव-णवा थूहा। जिण सिद्ध पडिमाहि अप्पडिभाहिं समाइण्णा ॥" . अर्थात्-भवन भूमि के पार्श्व भागों में प्रत्येक विथी के मध्य जिनों और सिद्धों की अनुपम प्रतिमाओं से व्याप्त नौ-नौ स्तूप होते हैं। इन स्तूपों की पूजा भी होती थी। जैनग्रंथों में कितने ही स्थलों पर तीर्थंकरदेवों की पूजा सम्बन्धी वर्णन पाते हैं । उन में एक उत्सव-यूवमह भी पाया है। इस शब्द के संबंध में राजेन्द्राभिधान कोष' में लिखा है कि 1. सत्य प्रतिज्ञ अशोक महान बड़ा प्रतापी जैन राजा काश्मीर में पाश्र्वनाथ के काल से पहले हो गया है .. इस का परिचय हम काश्मीर में जैनधर्म के इतिहास में देंगे। - 2. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति स्टीक पूर्व भाग १५८१ पृष्ठ में उल्लेख है कि भरत ने ऋषभदेव भगवान की चिता भूमि ... पर अष्टापद पर्वत की चोटी पर स्तूप का निर्माण कराया । "चेइन थूभे करेह ।" ... 3. तिलोयपण्णत्ति सानुवाद चउत्थो महाधियारो गाथा ८४४ पृष्ठ २५४ 4. ज्ञाताधर्मकथांग, भगवती सूत्र, निशीथ चूणि इत्यादि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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