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________________ I प्रमाद जैसी स्थिति को पनपने का अवकाश ही नहीं मिलेगा। परिवार और अपने चरित्र-बल के लिए भी व्यक्ति के कुछ कर्त्तव्य होते हैं । श्रमिक अणुव्रत के नियम कर्त्तव्य के प्रति जागरूक रहने के लिए ही हैं । जिस श्रमिक का जीवन संस्कारी होता है, जिसमें किसी प्रकार का दुर्व्यसन नहीं होता, जो जुआ नहीं खेलता, बाल-विवाह, मृत्युभोज जैसी सामाजिक कुरीतियों को प्रश्रय नहीं देता, अपने अर्जित अर्थ का सुरा, सिनेमा, सिगरेट आदि आदतों की पूर्ति के लिए अपव्यय नहीं करता, श्रम से जी नहीं चुराता और अपने दायित्व के प्रति जागरूक रहता है, वह श्रमिक कभी कर्त्तव्य-च्युत नहीं हो सकता। श्रमिक जीवन एक प्रशस्त जीवन-पद्धति ही नहीं, देश की बहुत बड़ी शक्ति है। श्रमिक अणुव्रत की धाराएं इस शक्ति को चारित्रिक संपदा से परिमंडित कर कर्त्तव्य - पालन की अपूर्व क्षमता दे सकती हैं । जिज्ञासा - जैन धर्म का विशिष्ट पर्व संवत्सरी भगवान् महावीर की देन है अथवा उससे पूर्व भी यह पर्व मनाया जाता रहा है ? प्राचीन काल में उसका स्वरूप क्या था ? समाधान - पर्युषण की परम्परा अर्हत् पार्श्व के समय में भी थी । अन्तर इतना ही है कि भगवान् महावीर के समय में पर्युषण कल्प अनिवार्य हो गया और अर्हत् पार्श्व के समय में वह ऐच्छिक कल्प के रूप में मान्य था। उस समय के साधु आवश्यकता समझते तो पर्युषणा करते । आवश्यकता प्रतीत नहीं होती तो नहीं भी करते । पर्युषणा का मूल आधार चातुर्मासिक प्रवास है । चातुर्मास में वर्षा होती है । वर्षा के दिनों में हरियाली बढ जाती है । अनेक प्रकार के जीव-जन्तु उत्पन्न हो जाते हैं । मार्ग चलने योग्य नहीं रहता । इस स्थिति में मुनि के लिए एक स्थान में रहने की व्यवस्था है । इसके आधार पर ही पर्युषणा की कल्पना की गई । उसके साथ तपस्या, विगय का प्रत्याख्यान, प्रतिसंलीनता, स्वाध्याय, ध्यान आदि कुछ व्यस्वस्थाएं योजित की गईं । अर्हत् पार्श्व के समय पर्युषण की व्यवस्था किस रूप में चलती थी, उसका कोई स्वतंत्र उल्लेख प्राप्त नहीं है । भगवान् महावीर के समय में भी उसका क्या स्वरूप था, कहना कठिन है। छेद सूत्रों में पर्युषण विषयक कुछेक निर्देश मिलते हैं। इनका विशद वर्णन 'पर्युषण कल्प' में उपलब्ध है। वह जिज्ञासा : समाधान : १५८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003144
Book TitleDiye se Diya Jale
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1998
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size9 MB
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