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________________ ३६ अमूर्त चिन्तन अपना हो तो दूसरे को पराया माना जाए। 'स्व' और 'पर' का चिन्तन ही समाप्त हो जाता है। अकेला, केवल अकेला। वह अपने आपको देखता ही अकेला है। यह सोच सकते हैं-यह सब अव्यावहारिक बातें हैं। इस चिंतन से क्या कोई परिवार चलेगा ? क्या कोई समाज चलेगा ? क्या कोई राष्ट्र चलेगा? यदि सब आदमी अपने को अकेले ही अकेले अनुभव करें तो क्या समुदाय बन पाएगा ? क्या कोई समष्टिगत कार्य हो सकेगा ? क्या कोई शक्ति का निर्माण हो सकेगा ? शक्ति का निर्माण तब होता है जब दो मिलते हैं, दो का योग होता है। योग होता है तब मकान बनता है। अकेले तन्तु की कोई कीमत नहीं होती। जब तन्तु मिलते हैं, उनका परस्पर योग होता है तब वस्त्र बनता है जो नग्नता को ढांकने में, सर्दी और गर्मी से बचाने में सक्षम होता है। जहां संगठन होता है, मिलन होता है, समुदाय बनता है, वहां शक्ति पैदा होती है। समाज की सारी शक्ति समुदाय पर निर्भर होती है। समुदाय होते ही शक्ति पैदा हो जाती है। अकेले में कुछ नहीं होता। व्यवहार के धरातल पर यह चिन्तन उभरता है और ऐसा लगता है कि अकेलेपन की बात सर्वथा अव्यावहारिक और असमाजिक है। ऐसा लग सकता है। व्यवहार का अर्थ ही होता है-स्थूल। जब व्यक्ति स्थूल भूमिका पर खड़ा रह कर सोचता है तब वह ऐसा ही सोच पाता है। ऐसा सोचना उस भूमिका की दृष्टि से त्रुटिपूर्ण नहीं है। यह सच है कि एक ईंट से कभी मकान नहीं बनता। यह कहावत भी सच है कि ईंट से ईंट बजती है। जहां दो मिलते हैं वहां शक्ति पैदा हो जाती है। जहां दो मिलते हैं वहीं संघर्ष पैदा होता है, चिनगारियां उछलती हैं। दो होने के साथ विशेषताएं भी हैं और दो होने के साथ कठिनाइयां और समस्याएं भी हैं। दो ने कभी लड़ाई न की हो, ऐसा कहीं नहीं मिलता तो अकेले आदमी ने कभी लड़ाई की हो, ऐसा भी कहीं न मिलता। दो में कभी न कभी टकराहट हो ही जाती है। निरन्तर साथ रहने वाले पिता-पुत्र, पति-पत्नी भी बिना टकराहट के नहीं रह पाते। प्रतिबिम्ब से भी टकराहट हो जाती है। चिड़िया कांच पर बैठती है और अपने ही प्रतिबिम्ब से लड़ने लग जाती है। वह प्रतिबिम्ब चिड़िया के चोंच मारती है, जब तक कि उसकी चोंच घायल नहीं हो जाती। शेर ने पानी में अपना प्रतिबिम्ब देखा और उसे मारने के लिए दौड़ा। वह पानी में डूबकर मर गया, अपने प्राण न्यौछावर कर दिए, किन्तु वह बिना टकराहट के नहीं रह सका। जब प्रतिबिम्ब से भी टकराहट हो जाती है तो साक्षात् में बिना टकराहट के रहना असम्भव-सा हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003139
Book TitleAmurtta Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
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