SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एकत्व भावना टूट जाते हैं, कोई कहना नहीं मानता, कोई सम्मान नहीं देता, तब वह सोचता है-अरे ! बड़ा विचित्र संसार है ! यहां कोई किसी का नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति अकेला है। मैं अकेला हूं, मेरा कोई नहीं यह अनुभूति इतनी तीव्र होती है कि वह सोचता है-आज मेरा कोई सहायक नहीं रहा, पूछने वाला नहीं रहा। सब मेरी उपेक्षा करते हैं। सब मेरी बात टाल देते हैं। वास्तव में मैं अकेला हूं। प्रत्येक बूढ़े व्यक्ति के साथ ऐसा अधिक या न्यून मात्रा में घटित होता है। अगर बूढ़ा आदमी उस स्थिति को एक अवसर मान ले तो बहुत बड़ा काम हो सकता है। अन्यथा हर स्थिति बहुत दु:खी बना देती है। बुढ़ापा बहुत बड़ी समस्या है और दु:खी होने का बहुत बड़ा अवसर है। किन्तु बुढ़ापा सुख से कट सकता है यदि बूढ़े व्यक्ति में थोड़ी-सी आध्यात्मिक चेतना-जागृत कर दी जाए और 'मैं अकेला हूं'-यह भावना उसके आत्मगत हो जाए। इस सचाई को समझने का यह अनमोल अवसर है। बहुत बड़ा सत्य उसके लिए उद्घाटित हो जाता है कि वास्तव में मनुष्य अकेला है। ये जोड़ने वाले जो धागे हैं, अभिन्नता का भ्रम पैदा करने वाली ये जो अपेक्षायें हैं, ये सब मोह के गर्त में ढकेलने वाली हैं। इन्हें तोड़ने का यह अवसर है। इनके टूट जाने पर जो शुद्ध 'मैं' है वह बच जाता है और मैं अकेला हूं' यह स्पष्ट प्रतिभासित होने लगता है। ऐसी स्थिति में जो यथार्थ 'मैं' था, वह बच गया, शेष सारे विलीन हो गए। जब आत्मा और शरीर का भेद स्पष्ट हो जाता है, अन्यत्व की अनुप्रेक्षा अनुभव में उतर आती है तब पहली बार उसे अनुभव होता है कि 'मैं अकेला हूं।' तब एकत्व की अनुप्रेक्षा, एकत्व का चिन्तन फूट पड़ता है। वह सोचता है-मैं अकेला हूं। जब शरीर भी मेरा नहीं है तब दूसरा फिर मेरा कौन होगा ? मैंने जिसे स्वजन मान रखा है, वह मेरा कैसे होगा ? यह दूर की बात है। मेरे सबसे निकट है-शरीर। जब शरीर भी मेरा नहीं है तब वह (स्वजन) मेरा कैसे होगा ? वह स्व कैसे होगा ? वह भी तो पराया ही है। जब परत्व की बुद्धि जागी तो एक भ्रम और जाग गया। जिसको स्व माना था, उसके प्रति राग संचित कर रखा था। और जिसको स्व नहीं माना, पर माना, उसके प्रति द्वेष संचित कर रखा था। पराए के प्रति कोई राग नहीं होता। जो अपना है, उसके प्रति राग होता है। स्व और पर की जो मान्यता बना रखी थी, वह भ्रम भी टूट गया। अब स्पष्ट बोध हो गया कि कोई 'स्व' नहीं है। जब शरीर भी 'स्व' नहीं है तो दूसरा पदार्थ 'स्व' कैसे होगा ? जब कोई भी 'स्व' नहीं है तो कोई 'पर' कैसे होगा ? यह 'स्व' और 'पर' की रेखा ही समाप्त हो जाती है। यदि कोई 'स्व' हो तो किसी को पर' माना जाए। कोई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003139
Book TitleAmurtta Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy