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________________ "देवद्रव्य" नहीं हैं और इस कारणसे यानि उनके ऐसा मान लेनेसे नास्तिक लोक बढ़ जाय तो उस द्रव्यको मरजी चाहे वैसे कार्यमें लगाकर लोकोंको अधम शिक्षा दी जायकि जिससे नास्तिकसमाज बढ़जाय, और दुनियाको धर्मभ्रष्ट करने का जो इरादा कर रहेहैं वह पूरा होजाय, इस स्वार्थसे दारुण मृषावादी बनकर " जैनागममें देवद्रव्यका नामभी नहीं है" ऐसी गप्प मारदी है । देवमन्दिरको उडानेसे उसका कोई स्वार्थ नहीं हैं इसलिये नहीं उडाया अगर उसमेंभी स्वार्थ होता तो वहभी उड़ादिया जाता । पर स्थान स्थान पर 'जिणहरे गच्छइ गच्छित्ता, वर्सेतो जिणदव्वं, रखंतो जिणदव्वं, इत्यादि पाठ आते हैं वहां पर इन मूढ लोकोंकी बातोंको कौन माने ! चाहेजितना वकवाद क्यों न करे आस्तिकोपर उसका कुछभी असर नहीं होता, और नास्तिकों के लिये उनके दुर्भाग्यवश कहनेकी आवश्यकता नहीं। अगर कभी दैवयोगसे. भद्रिकआस्तिकों पर नास्तिकोंके भाषण का कुछ बुरा असर पडाभी होगा तो आपकी हितबुद्धिसे लिखी हुई इस पुस्तक के पढ़नेसे दूर. होजायगा, ऐसी आशा करता हूँ। अब आप यह बतलाइए कि बेचरदासेन जैसा प्रश्न उठाया है यानी " रागद्वेषरहित प्रभुन द्रव्य थइ शकतुं नथी, " क्या ऐसा प्रश्न पहले किसीका किया हुआ प्राचीन शास्त्रोमें नजर आता है और उसीपर कुछ समाधाभभी लिखा गया है ? समालोचक-शक, देखिये सम्बोधप्रकरणमें, चौदहसौ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003135
Book TitleDevdravyadisiddhi Aparnam Bechar Hitshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarupchand Dolatram Shah, Ambalal Jethalal Shah
PublisherSha Sarupchand Dolatram Mansa
Publication Year
Total Pages176
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Devdravya
File Size7 MB
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