SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २४.) शब्दका क्योंकि ' जिन ' नाम वीतराग देवका है । ऐसे वीतराग - देवका मन्दिर ( घर ) किसतरह होसकता है ! यदि इस बातकोभी मानले तो फिर नास्तिकता के कारणसे कह दिया जायगा कि अपन " जैन " भी नहीं कहा सकते ! क्योंकि " जैन " अर्थ-'" जिनस्येमे जैनाः " जिन प्रभुके ये हैं ऐने अर्थ में " जैन " शब्द बनता है, मतलबकि जिन प्रभुके भक्त - उपासक जैन कहलाते हैं । तो वीतराग प्रभुके " ये हैं- इनके उपासक जैन हैं " ऐसा संभव नहीं इसलिए अपनेको जैन नाम छोड़ देना चाहिए। क्या इसतरह मालूम होनेपर तत्रिलोक और अन्य जन जिनमन्दिरको या अपने जैननामको छोड़ देगें ? यदि इसका जवाब नकार दिया जायगा तो फिर जैसे वीतराग देवसे मन्दिरशव्दका योग होता है और जैनशब्द बनता है वैसे ही देवद्रव्यशब्द क्यों नहीं बन सकता ! प्रिय वाचकगण ! विचार कीजिएगा कि बेचरदास कितना अकलमंद शक्स है कि जो देवमन्दिरको मानता हुआ भी देवद्रव्यको स्वीकार नहीं करता । जिसको वीतराग देवके साथ मन्दिर - शब्दका स्वीकार है उसको वीतराग देवके साथ द्रव्यशब्द क्यों मंजूर नहीं होता ! क्या बेचरदास एक चक्षुवाले ऊंटकी तरह एक तरफकी बेलड़ी चरनेवाला है ! जो वीतराग देवका मन्दिरसे सम्बंध मानता हुआभी द्रव्यका सम्बंध नहीं मानता । तटस्थ - देखिये, जिनमन्दिरका स्वीकार करते हुएभी देवद्रव्यका स्वीकार न करनेका कारण बालाया जाता है । यदि ऐसा मान लेवे कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003135
Book TitleDevdravyadisiddhi Aparnam Bechar Hitshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarupchand Dolatram Shah, Ambalal Jethalal Shah
PublisherSha Sarupchand Dolatram Mansa
Publication Year
Total Pages176
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Devdravya
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy