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________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन ५३ ऐसे प्रसंगों में जहां हेतु और कार्य के स्वरूप एक-दूसरे पर अवलम्बित नहीं होते (उनका सामंजस्य नहीं होता), वहां हेतु और क्रिया में असामंजस्य की स्थिति में, उनका स्वरूप-विवेक ही उनकी कसौटी बनता है। स्वरूपात्मक कसौटी की दष्टि से हेतु और कार्य के रूप इस प्रकार होंगे : १. हेतु अच्छा-कार्य बुरा । २. हेतु बुरा-कार्य अच्छा । पहले रूप का निदर्शन ऊपर की पंक्तियों में आ चुका है। दूसरे रूप का निदर्शन इस प्रकार है : (१) एक व्यक्ति मार से बचने के लिए सच बोला। सच बोलने का हेतु सही नहीं है किन्तु वह असत्य नहीं बोला, यह गलत नहीं है। (२) रोटी नहीं मिली, अनिच्छा से भूख सही, यह अकाम-तपस्या है। इसका भावात्मक हेतु नहीं, इसलिए वह वस्तुवृत्त्या अहेतुक है। किन्तु अभावात्मक (रोटी के अभाव को ही) हेतु माना जाए तो उस स्थिति में यह निष्कर्ष आता है कि रोटी का अभाव पवित्र नहीं। पवित्र है-भूख सहन, जो कि तपस्या है। श्रीमज्जयाचार्य के शब्दों में-अकाम तपस्या में आत्म-शोधन की दृष्टि से भूख सहने की इच्छा नहीं है। यह बुराई है। किन्तु जो भूख सही जाती है, वह बुराई नहीं । पौद्गलिक सुख के लिए तपस्या की। यहाँ हेतु की दृष्टि से कार्य अच्छा नहीं है। फिर भी तपस्या का स्वरूप निर्दोष है, इसलिए स्वरूप की दृष्टि से वह बुरा भी नहीं। हेतु और क्रिया की समंजस स्थिति जैसा परिणाम लाती है, वैसा परिणाम उनकी असमंजसता में नहीं आता। आत्म-शोधन के लिए होने वाली तपस्या में पवित्रता का जो सर्वांगीण-उत्कर्ष होता है, वह अनिच्छा या पौद्गलिक इच्छा से होने वाली तपस्या में कभी नहीं होता। फिर भी एकांगिता में जितना होना चाहिए, उतना परिणाम अवश्य होता है । एक व्यक्ति का उद्देश्य है --बड़प्पन । उसकी पूर्ति के लिए वह तपस्वी बनता है। पहले में क्रिया उद्देश्य के अनुरूप नहीं है । दूसरे में उद्देश्य क्रिया के अनुरूप नहीं है। प्रतिरूप क्रिया उद्देश्य को पूरा नहीं होने देती और प्रतिरूप उद्देश्य क्रिया को पूरा नहीं बनने देता। इसकी असमंजसता न मिटने तक पूर्णता आती ही नहीं, इसलिए यह स्थिति वांछनीय नहीं है, फिर भी यह मानना पड़ता है कि स्वरूप की दृष्टि से दोनों एक नहीं हैं। परिणाम से धर्म-अधर्म का निर्णय नहीं होता। उसे आचार्य भिक्षु ने तीन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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