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________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन ४१ पर भी वैसा भाव होने से वह पुरुष सदा उनका घातक ही है । इसी प्रकार अप्रत्याख्यानी एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय प्राणी भी मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग से अनुगत होने के कारण प्राणातिपात आदि पापों से दूषित ही हैं, वे उनसे निवृत्त नहीं हैं। जैसे अवसर न मिलने पर गाथापति आदि का घात न करने वाला पूर्वोक्त पुरुष उनका अवरी नहीं किन्तु वैरी ही है, उसी तरह प्राणियों का घात न करने वाले अप्रत्याख्यानी जीव भी प्राणियों के वैरी ही हैं, अवैरी नहीं। जिन प्राणियों का मन राग-द्वेष से पूर्ण और अज्ञान से ढका हुआ है, वे ही दूसरे प्राणियों के प्रति दूषित भाव रखते हैं। क्योंकि एकमात्र विरति ही भाव को शुद्ध करने वाली है । वह (विरति) जिनमें नहीं है, वे प्राणी सभी प्राणियों के भाव से वैरी हैं । जिनके घात का अवसर उन्हें मिलता है, उनकी घात उनसे न होने पर भी वे उनके अघातक नहीं हैं। इसलिए जिस प्राणी ने पाप का प्रतिघात और प्रत्याख्यान नहीं किया, वह स्पष्ट विज्ञानहीन भले हो, फिर भी पाप कर्म करता फिर प्रश्न होता है-ऐसे तो सभी प्राणी सभी प्राणियों के शत्रु हो जाते हैं, पर यह जंचता नहीं। कारण कि हिंसा का भाव परिचित व्यक्तियों पर ही होता है, अपरिचित व्यक्तियों पर नहीं। संसार में सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त अनन्त प्राणी ऐसे हैं जो देश, काल और स्वभाव से अत्यन्त दूरवर्ती हैं । वे इतने सूक्ष्म और दूर हैं कि हमारे जैसे अर्वाग्दी पुरुषों ने उन्हें न तो कभी देखा है और न सुना है। वे किसी के न तो वैरी हैं और न मित्र ही। फिर उनके प्रति किसी का हिंसामय भाव होना किस प्रकार सम्भव है ? इसलिए सभी प्राणी सभी प्राणियों के प्रति हिंसा के भाव रखते हैं, यह नहीं माना जा सकता। __उत्तर यह है-जो प्राणी जिस प्राणी की हिंसा से निवृत्त नहीं किन्तु प्रवृत्त है, उसकी चित्तवृत्ति उसके प्रति सदा हिंसात्मक ही बनी रहती है। इसलिए वह हिंसक ही है, अहिंसक नहीं। जैसे कोई ग्राम की घात करने वाला व्यक्ति जिस समय ग्राम की घात करने में प्रवृत्त होता है, उस समय जो प्राणी उस ग्राम को छोड़कर किसी दूसरे स्थान में चले गए हैं, उनकी घात उनके द्वारा नहीं होती तो भी वह घातक पुरुष उन प्राणियों का अघातक या उनके प्रति हिंसात्मक चित्तवृत्ति न रखने वाला नहीं है, क्योंकि उसकी इच्छा उन प्राणियों के भी घात की है अर्थात् वह उन्हें भी मारना ही चाहता है परन्तु वे उस समय वहां उपस्थित नहीं हैं, इसलिए वे नहीं मारे जाते । इसी तरह जो प्राणी देशकाल के दूर के प्राणियों के घात 1, सूत्रकृतांग २।४।६४ 2. वही, २।४।६४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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