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________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन अहिंसा के ही पहलू हैं। भगवान् अरिष्टनेमि भी इतिहास के छोर के समीपवर्ती हैं । ये कृष्ण के चचेरे भाई थे। ये अपने विवाह के निमित्त होने वाली जीव-जन्तुओं की हिंसा को अपने लिए अनिष्ट मान विवाह ठुकरा देते हैं और मुनि बन जाते हैं। केवलज्ञान पाकर फिर अहिंसा की देशना देते हैं और संघ की स्थापना करते हैं। छान्दोग्य-उपनिषद् (३।१७) के अनुसार घोरआंगिरस ऋषि कृष्ण के आध्यात्मिक गुरु थे। उन्होंने कृष्ण को आत्म-यज्ञ की शिक्षा दी। उस यज्ञ की दक्षिणा है-तपश्चर्या, दान, ऋजुभाव, अहिंसा और सत्य-वचन। इनके आधार पर तथा विशेष रूप से आत्मयज्ञ, जो अहिंसा का दूसरा नाम है, के आधार पर यह कल्पना होती है कि घोरआंगिरस भगवान् अरिष्टनेमि का ही नाम होगा। घोर शब्द भी जैन मुनियों के आचार और तपस्या का प्रतिरूपक है। भगवान् अरिष्टनेमि के समय में अहिंसा धर्म का प्रचार बहुल मात्रा में हुआ। श्रीकृष्ण सूक्ष्म जीव और वनस्पति जीवों की हिंसा के विचार से चातुर्मास में राज्यसभा का आयोजन भी नहीं करते थे। __ भगवान् अरिष्टनेमि से भगवान् ऋषभ सुदूर अतीत में हुए थे। फिर भी भगवान् ऋषभ से अहिंसा की जो धारा फूटी थी, वह मध्यावधि में कभी-कभी क्षीण होकर भी सूखी नहीं थी। भगवान् पार्श्व भगवान् पार्श्व ऐतिहासिक व्यक्ति माने जाते हैं। उनका समय भगवान् महावीर के २५० वर्ष पूर्व (ई० पू० आठवीं शती) भगवान महावीर भगवान् पार्श्व को पुरुषादानीय विशेषण से विशेषित करते थे। यह उनकी लोकप्रियता का सूचक है। ऋषभ के बाद यदि किसी दूसरे अहिंसा-प्रवर्तक की व्यापक प्रतिष्ठा है तो पार्श्व की है। बंगाल और उड़ीसा की आदिवासी जातियों में भी उनका बहुत समादर रहा है। अध्यापक धर्मानन्द कौशम्बी भगवान् पार्श्वनाथ के चतुर्याम धर्म और संघ के बारे में लिखते हैं - पार्श्व का धर्म बिलकुल सीधा-सादा था। हिंसा, असत्य, स्तेय तथा परिग्रह; इन चार बातों के त्याग करने का वह उपदेश देते थे। इतने प्राचीन काल में अहिंसा को इतना सुसम्बद्ध रूप देने का यह पहला ही उदाहरण है। सिनाई पर्वत पर मोजेस को ईश्वर ने जो दस आज्ञाएँ सुनाई, उनमें "हत्या मत करो", इसका भी समावेश था। पर उन आज्ञाओं को सुनकर मोजेस और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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