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________________ श्रीमद्भागवत की स्तुतियों में अलंकार १९७ गोपीगीत, वेणुगीत के प्रत्येक श्लोक में अनुप्रासिक सौन्दर्य का दर्शन होता है । चतुर्थ स्कन्ध के अन्तर्गत विद्यमान राजा पृथु की स्तुति का एक श्लोक उद्धृत है -- जो अनुप्रासिक सौन्दर्य का उत्कृष्ट रूप प्रस्तुत करता है । राजा पृथ अपने प्रभु से कहते हैं वरान् विभो त्वद्वरदेश्वराद् बुधः कथं वृणीते गुणविक्रियात्मनाम् । ये नारकाणामपि सन्ति देहिनां तानीश कैवल्यपते वृणे न च ॥ इस प्रकार श्रीमद्भागवतकार ने अनुप्रासिक सौन्दर्य को खूब पहचाना है । उपमा उपमा भारतीय साहित्यशास्त्र में उपलब्ध अलंकारों में अत्यन्त प्राचीन तथा सौन्दर्य की दृष्टि से अग्रगण्य है । वामन, दण्डी, राजशेखर, अभिनवगुप्त, मम्मट आदि सभी आचार्यों ने उपमा के महत्त्व को स्वीकारा | अभिनवगुप्त सभी अलंकारों का मूल उपमा को मानते हैं।' राजशेखर ने उपमा को सभी अलंकारों में मूर्धाभिषिक्त, काव्य का सर्वस्व तथा कवि-कुल की माता कहा है ।" अलंकार शास्त्र में उपमा का निरूपण अत्यन्त सूक्ष्म ढंग एवं भेदोभेद सहित किया गया है । रुद्रट ने अर्थालंकार के वर्गीकरण में चार तत्त्वों को मूल आधार मानकर औपम्य अथवा सादृश्य तत्त्व को ही प्रमुख माना है । कवि का उद्देश्य वस्तु के दर्शन से उत्पन्न अपनी अनुभूति को व्यक्त करना है । इस अवस्था में वह वस्तु स्वरूप निबन्धन न कर प्रतिमा निबन्धन करता है । उदाहरणार्थ कवि का वर्ण्य विषय यदि मुख है तो वह मुख का बाह्य या स्थूल वर्णन न कर मुख दर्शन सोन्दर्य भावना को व्यक्त करता है । मुख चन्द्रवत् है ऐसा कहने से कोमलता, स्निग्धता, चारुता, सुन्दरता आदि चन्द्रमा के जो गुण हैं वे सभी सादृश्य के आधार पर मुख में भी प्रतिबिम्बित होने लगते हैं । अलंकार शास्त्रियों ने उपमा को सम्यक् रूप से पारिभाषित करने का प्रयास किया है । आचार्य भरत के अनुसार काव्य रचना में कोई वस्तु सादृश्य के कारण दूसरी वस्तु के साथ उपमित होती है वहां उपमा होती है, वह उपमा गुण और आकृति पर आधारित होती है ।" भामह के अनुसार उपमान १. उनमाप्रपञ्चश्च सर्वोऽलङ्कार इति विद्वद्भिः प्रतिपन्नयेव । अभिनव - भारती पृ० ३२१ २. केशव मिश्र के अलंकार शेखर में उद्धृत, पृ० ३२ ३. काव्यलंकार ७.९ ४. भरत, नाट्यशास्त्र १६,४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003125
Book TitleShrimad Bhagawat ki Stutiyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Pandey
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages300
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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