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________________ १८२ श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन प्रति सहज निर्वेद रूप शम, जो स्थायी भाव है, रसनीयत्व को प्राप्त हो जाता है। शान्तरस का अन्य उदाहरण ---- न नाकपृष्ठं न च सार्वभौम न पारमेष्ठ्यं न रसाधिपत्यम् । न योगसिद्धीरपुनर्भवं वा वाञ्छन्ति यत्पादरजः प्रपन्नाः ॥ हे प्रभो ! जो भक्त आपके चरणों की धूलि का शरण लेते हैं, वे लोग न स्वर्ग का राज्य या न पृथिवी का आधिपत्य चाहते, वे रसातल का राज्य या ब्रह्मपद भी प्राप्त करना नहीं चाहते। उन्हें न तो अणिमादि सिद्धियों की आवश्यकता होती है और न जन्म मृत्यु से छुड़ाने वाले कैवल्यमोक्ष की ही कामना करते। प्रस्तुत में भागवतभक्त आलम्बलन के द्वारा उत्पन्न भगवच्चरणधूलि आदि उद्दीपन के द्वारा उद्दीप्त सम्पूर्ण भोगों के त्याग रूप अनुभाव के द्वारा कार्य दशा को प्राप्त, हर्षादि संचारिकों के द्वारा पुष्ट शान्तिरति स्थायी भाव अभिव्यक्त होकर रस दशा को प्राप्त हुआ है। इस प्रकार स्तुतियों में शान्त रस का सर्वत्र साम्राज्य व्याप्त है । २. प्रोतिरस (दास्य रस) श्रीधरस्वामी ने रस के प्रसंग में इस भक्तिरस को सप्रेमभक्तिरसनामक रसराज कहा है। नामकौमुदी के निर्माता सुदेवादि ने इसी को रति स्थायी भाव वाला शान्त रस कहा है ।' अपने अनुरूप विभावादि के द्वारा भक्तों के हृदय में आस्वादन योग्यता को प्राप्त हुई प्रीति ही प्रीति भक्तिरस कहलाती है । शान्तरस में स्वरूप चिन्तन की प्रधानता होती है, प्रीतिरस में ऐश्वर्य चिन्तन की । कतिपय आचार्यों ने इसे दास्यरस भी कहा है । प्रीति भक्ति के दो भेद (१) भयजन्यसंभ्रमप्रीतिरस तथा (२) गौरव मिश्रित गौरव प्रीतिरस । सम्भ्रमजनित प्रीतिभक्तिरस में भक्त भगवान् के अनंत-ऐश्वर्य, प्रभाव, महत्त्व, शक्ति, प्रतिष्ठा, गुणों का आधिक्य एवं चरित्र की अलौकिकता आदि देखकर या जानकर अपने सेव्य के रूप में प्रभु का वरण कर लेता है, और उनकी सेवा के रस में ही अपने को डबा देता है। गौरव प्रीतिरस में भगवान के साथ गौरव सम्बन्ध होता है, जैसे भगवान् के पुत्र प्रद्युम्न, शाम्ब आदि गुरुबुद्धि से भगवान् की सेवा करते थे । भक्तिमति कुन्ती की स्तुति में संभ्रमप्रीति और गौरव प्रीति दोनों का मिश्रण पाया जाता है। रसिकभक्तों ने सगुण साकार, अनंत ऐश्वर्यों के निधि द्विभुज, चतुर्भुज आदि आकार विशिष्ट भगद्विग्रह को प्रीतिरस का आलम्बन स्वीकार किया है। १. श्रीमद्भागवत १०.१६.३७ २. भक्तिरसामृतसिन्धु-पश्चिम विभाग २।१-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003125
Book TitleShrimad Bhagawat ki Stutiyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Pandey
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages300
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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