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________________ भागवत की स्तुतियां : स्रोत, वर्गीकरण एवं वस्तु विश्लेषण दशम स्कंध में समाहित स्तुतियां श्रीमद्भागवत में सबसे ज्यादा स्तुतियां दशम स्कन्ध में ही ग्रथित हैं । इसके द्वितीय अध्याय में गर्भ स्तुति है। भगवान लोकनाथ कंशादि दुष्टों से जीव-जगत् के उद्धार के लिए कंश-कारागार में माता देवकी के गर्भ में अवतरित होते हैं। सभी देवता, ऋषि आदि उसी वेला में कंश के कारागार में आकर प्रभु की स्तुति करते हैं।' प्रभो, आप सत्यसंकल्प हैं । सत्य ही आपकी प्राप्ति का श्रेष्ठ साधन है । सृष्टि के पूर्व, प्रलय के पश्चात् और संसार की स्थिति के समय इन असत्य अवस्थाओं में भी आप सत्य हैं । हे सत्यस्वरूप ! हम आपके शरणप्रपन्न हैं, हम लोगों की रक्षा करो। जो आपके नामादि का गायन करता है, वह संसार से सद्यः मुक्त हो जाता है-- शण्वन् गणन संस्मरयंश्च चिन्तयन् नामानि रूपाणि च मङगलानि ते। क्रियासु यस्त्वच्चरणारविन्दयोराविष्टचेता न भवाय कल्पते ॥ जगदीश्वर धरती के उद्धार के लिए कंश-कारागार में प्रकट हो गये । उस समय सम्पूर्ण सूतिकागृह भगवान् की अंगकांति से जगमगा रहा था। भगवान का प्रभाव समझकर भगवच्चरणों में अपने को स्थित करके वसुदेव और देवकी स्तुति करने लगे। इन दोनों की स्तुति वात्सल्य से भावित निष्काम स्तुति है । वसुदेव जी कहते हैं-मैं समझ गया कि आप प्रकृति से अतीत साक्षात् पुरुषोत्तम हैं । आपका स्वरूप है केवल आनन्द । आप समस्त बुद्धियों के एक मात्र साक्षी हैं । हे प्रभो, आप समस्त राक्षसों के संहारकर्ता हैं - त्वमस्य लोकस्य विभो रिरक्षिषुग हेऽवतीर्णोऽसि ममाखिलेश्वर । राजन्यसंज्ञासुरकोटियूथपनिब्यूह्यमाना निहनिष्यसे चमूः॥ माता देवकी प्रभु से कहती है-विश्वात्मन्, आपका यह रूप अलौकिक है । आप शंखचक्र गदा और कमल की शोभा से युक्त अपना यह चतुर्भुज रूप छिपा लीजिए । प्रलय के समय आप सम्पूर्ण विश्व को अपने शरीर में वैसे ही स्वाभाविक रूप से धारण करते हैं, जैसे कोई मनुष्य अपने शरीर में रहने वाले छिद्ररूप आकाश को। वही परमपुरुष परमात्मा आप मेरे गर्भवासी हुए, यह आपकी अद्भुत मनुष्यलीला नहीं तो और क्या है।" १. श्रीमद्भागवत १०।२।२६-४१ २. तत्रैव १०१२।३७ ३. तत्र व क्रमश: १०३।१३-२२ एवं २४-३१ ४. तत्रैव १०।३।२१ ५. तत्रैव १०३।३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003125
Book TitleShrimad Bhagawat ki Stutiyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Pandey
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages300
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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