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________________ १०४ श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए स्तुति करता है।' मात्र चार श्लोक की इस स्तुति में वत्रासुर ने सारे भक्तिशास्त्र में प्रतिपादित भक्ति तत्त्व को एकत्र उपस्थित कर दिया है। वृत्रासुर की इस स्तुति के अवलोकन से लगता है कि वह महान् भक्त था। वह सम्पूर्ण वैभव-विलास को त्यागकर केवल भगवान के दासों के दास बनना चाहता है अहं हरे तव पादैकमूल दासानुदासो भवितास्मि भूयः । मनः स्मरेतासुपतेर्गुणांस्ते गृणीत वाक् कर्म करोतु कायः ॥ वृत्रासुर प्रभु के चरणरज को छोड़कर स्वर्ग, ब्रह्मलोक, भूमण्डल का साम्राज्य, रसातल का एक क्षत्र राज्य, योग की सिद्धियां - यहां तक की मोक्ष भी नहीं चाहता । हे नाथ ! जैसे पंखहीन पक्षियों के बच्चे अपनी मां की वाट देखते हैं, भूखे बछड़े अपने मां का दूध पीने के लिए आतुर रहते हैं और जैसे वियोगिनी पत्नी अपने प्रवासी प्रियतम से मिलने के लिए उत्कण्ठित रहती है. वैसे ही कमलनयन मेरा मन आपके दर्शन के लिए छटपटा रहा अजातपक्षा इव मातरं खगाः स्तन्यं यथा वत्सतराः क्षुधार्ताः। प्रियं प्रियेव व्युषितं विषण्णा मनोऽरविन्दाक्ष दिदृक्षते त्वाम् ॥' पष्ठ स्कन्ध के सोलहवें अध्याय में संकर्षण देव की दो स्तुतियां हैं। प्रथम जितेन्द्रिय भगवद्भक्त एवं शरणागत चित्रकेतु को भगवान् नारद संकर्षण विद्या का उपदेश देते हैं । उस विद्या के प्रभाव से राजाचित्रकेतु अमल मानस होकर मन द्वारा भगवान् शेष का दर्शन प्राप्त करने में समर्थ होता है । भगवान् नारद संकर्षण विद्या का इस प्रकार प्रारंभ करते हैं ॐ नमस्तुभ्यं भगवते वासुदेवाय धीमहि । प्रद्युम्नायानिरुद्धाय नमः संकर्षणाय च ॥ नमो विज्ञानमात्राय परमानन्दमूर्तये । आत्मारामाय शान्ताय निवृतद्वैतदृष्टये ॥ विद्या के प्रभाव से राजा चित्रकेतु भगवान् शेष का दर्शन प्राप्त कर मन, बुद्धि और इन्द्रिय को उन्हीं में समाहित कर उनकी स्तुति करने लगते हैं।' चित्र केतु कहते हैं -अजित ! जितेन्द्रिय एवं समदर्शी साधुओं ने आपको जीत लिया है । आपने भी सौन्दर्य, माधुर्य और कारुण्य आदि गुणों से १. श्रीमद्भागवत ६।११।२४-२७ २. तत्र व ६।११।२४ ३. तत्रैव ६।११२८ ४. तत्रैव ६।१६।१७-१८ ५. तत्र व ६।१६।३३-४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003125
Book TitleShrimad Bhagawat ki Stutiyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Pandey
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages300
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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