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________________ ८६ आगमतो रोगहा, पसत्थाऽपसत्थपरपासंड सत्थजाला हिज्झण श्रावणवायणापेहणाकुसीने, तत्थ जे ते अपसत्थनाणकुसीले गूणतीस वि" इत्यादि । अर्थात् - 'कुशील संक्षेप में दो प्रकार के जानने चाहिए, परम्परा कुशील और अपरम्पराकुशील, परम्पराकुशील भी दो प्रकार के होते हैं-सात आठ पीढी से कुशील और एक दो तीन पीढी से कुशील । जो भी अपरंपराकुशील होते हैं, वे भी दो प्रकार के होते हैंश्रागम से और नोआगम से, आगम से गुरु परम्परा की आवलिका में कोई कुशील नहीं था पर वर्तमान कालीन आचार्य साधु ही कुशील हैं, नो आगम से अनेक प्रकार के कुशील होते हैं, जैसेज्ञान कुशील, दर्शन कुशील, चारित्र कुशील, तपः कुशील, वीर्यकुशील इनमें ज्ञान कुशील तीन प्रकार के होते हैं - प्रशस्त अप्रशस्त ज्ञान कुशील, अप्रशस्त ज्ञानकुशील, सुशप्रस्त ज्ञानकुशील, इनमें जो प्रशस्ता प्रशस्त ज्ञानकुशील हैं वे दो प्रकार के जानो - आगम से और नोआगम से, आगम से विभंग ज्ञानी प्रज्ञप्त प्रशस्त अप्रशस्त अर्थ जाल का अध्ययन करने कराने वाले कुशील, नो आगम से भी अनेक प्रकार के कुशील होते हैं- प्रशस्त अप्रशस्त परपाषंडों के शास्तार्थं जाल का अध्ययन-अध्यापन-वाचनाऽनुप्रेक्षा कुशील आदि । तहां अप्रशस्त ज्ञान कुशील उनतीस ( २६ ) प्रकार के होते हैं ।" इत्यादि । शरीर कुशील महानिशीथ के तृतीयाध्ययन को सूक्ष्म दृष्टि से पढ़ने से इस सूत्र के रचे जाने के समय में जैन श्रमणों का आचार कितनी हद तक बिगड़ गया था यह स्पष्ट हो जाता है, यद्यपि वह समय गीतार्थं युग में पड़ता था, तथापि ज्ञान के साथ किया मार्ग हद से ज्यादा बिगड़ चुका था, पार्श्वस्थ, कुशील, अवसन्न, संसक्त, नित्यवासी आदि नामों से पहिचाने जाने वाले शिथिलाचारी साधु- वेषधारी इतने बढ गये थे कि उनके सामने वैहारिक साधुओं की संख्या अल्प For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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