SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३६ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण कार्यक्षेत्र को ही धर्मस्थान बना लें, मंदिर बना लें।"१ आचार्य तुलसी समय-समय पर अपने क्रांतिकारी विचारों को जनता के समक्ष प्रस्तुत करते रहते हैं, जिससे अनेक आवरणों में छिपे धर्म का विशुद्ध और मौलिक स्वरूप जनता के समक्ष प्रकट हो सके। वे धर्म को प्रभावी, तेजस्वी एवं कामयाबी बनाने के लिए उसके प्रयोगात्मक पक्ष को पुष्ट करने के समर्थक हैं। इस संदर्भ में उनका विचार है- “धर्म को प्रायोगिक बनाए बिना किसी भी व्यक्ति को यथेष्ट लाभ नहीं मिल सकता। इसलिए थ्योरिकल धर्म को प्रेक्टिकल रूप देकर इसकी उपयोगिता प्रमाणित करनी है क्योंकि धर्म के प्रायोगिक स्वरूप को उपेक्षित करने से ही अवैज्ञानिक परम्पराओं और क्रियाकाण्डों को पोषण मिलता है।"२ आचार्य तुलसी ने 'प्रेक्षाध्यान' के माध्यम से धर्म का प्रायोगिक रूप जनता के समक्ष प्रस्तुत किया है । जिससे हजारों-लाखों लोगों ने तनाव मुक्त जीवन जीने का अभ्यास किया है । 'चतुर्थ प्रेक्षाध्यान शिविर' के समापन समारोह पर अपने चिरपोषित स्वप्न को आंशिक रूप में साकार देखकर वे अपना मनस्तोष इस भाषा में प्रकट करते हैं ---- "मेरा बहुत वर्षों का एक स्वप्न था, कल्पना थी कि जिस प्रकार नाटक, सिनेमा को देखने, स्वादिष्ट पदार्थों को खाने में लोगों का आकर्षण है, वैसा ही या इससे बढ़कर आकर्षण धर्म व अध्यात्म के प्रति जागृत हो । लोगों को धर्म व अध्यात्म की बात सुनने का निमन्त्रण नहीं देना पड़े, बल्कि आंतरिक जिज्ञासावश और आत्मशान्ति की प्राप्ति के लिये वे स्वयं उसे सुनना चाहें, धार्मिक बनना चाहें और धर्म व अध्यात्म को जीना पसंद करें। मुझे अत्यधिक प्रसन्नता है कि मेरा वह चिर संजोया स्वप्न अब साकार रूप ले रहा है ।।3 आचार्य तुलसी के धर्म सम्बन्धी कुछ स्फुट क्रांत विचारों को यहां प्रस्तुत किया जा रहा है--. "केवल परलोक सुधार का मीठा आश्वासन किसी भी धर्म को तेजस्वी नहीं बना सकता। इस लोक को बिगाड़कर परलोक सुधारने वाला धर्म बासी धर्म होगा, उधार का धर्म होगा। हमें तो नगद धर्म चाहिए। जब भी धर्म करें, हमारा सुधार हो। वह नगद धर्म है-बुराइयों का त्याग।" केवल भगवान् का गुणगान करने से जीवन में रूपान्तरण नहीं आ सकता। सच्ची भक्ति और उपासना तभी संभव है, जब भगवान् द्वारा १. एक बूंद : एक सागर, पृ. १७११ । २. सफर : आधी शताब्दी का, पृ. ८४ । ३. सोचो ! समझो !! भाग ३, पृ० १४१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003117
Book TitleAcharya Tulsi Sahitya Ek Paryavekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages708
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy