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________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन १३५ ३. हम सत्य के पुजारी हों।' पर इसके लिए वे उपदेश को ही पर्याप्त नहीं मानते। इसके साथ शोध, प्रयोग और प्रशिक्षण भी जुड़ना आवश्यक है। उनका अनुभव है कि जब तक धर्म में आयी विकृतियों का अंत नहीं होगा, धार्मिकों का धर्मशून्य व्यवहार नहीं बदलेगा, देश की युवापीढ़ी धर्म के प्रति आस्था नहीं रख सकेगी।"२ वे दृढविश्वास के साथ कहते हैं--."धर्म के क्षेत्र में पनपने वाली विकृतियों को समाप्त कर दिया जाए तो वह अंधकार में प्रकाश बिखेर देता है, विषमता की धरती पर समता की पौध लगा देता है, दुःख को सुख में बदल देता है और दृष्टिकोण के मिथ्यात्व को दूर कर व्यक्ति को यथार्थ के धरातल पर लाकर खड़ा कर देता है। यथार्थदर्शी व्यक्ति धर्म के दोनों रूपों को सही रूप में समझ लेता है, इसलिए वह कहीं भ्रान्त नहीं होता।" धर्मक्रांति भारत की धार्मिक परम्परा में आचार्य तुलसी ऐसे व्यक्तित्व का नाम है, जिन्होंने जड़ उपासना एवं क्रियाकाण्ड तक सीमित मृतप्रायः धर्म को जीवित करने में अपनी पूरी शक्ति लगाई है। बीसवीं सदी में धर्म के नए एवं क्रांतिकारी स्वरूप को प्रकट करने का श्रेय आचार्य तुलसी को जाता है । वे अपने संकल्प की अभिव्यक्ति निम्न शब्दों में करते हैं.-.-."मैं उस धर्म की शुद्धि चाहता हूं, जो रूढ़िवाद के घेरे में बन्द है, जो एक स्थान, समय और वर्गविशेष में बंदी हो गया है।" धर्मक्रान्ति के संदर्भ में एक पत्रकार द्वारा पूछे गए प्रश्न के उत्तर में वे कहते हैं ...."आचार को पहला स्थान मिले और उपासना को दूसरा। आज इससे उल्टा हो गया है, उसे फिर उल्टा देने को मैं धर्मक्रांति मानता हूं।" उनकी क्रांतिकारिता निम्न पंक्तियों से स्पष्ट है-'मेरे धर्म की परिभाषा यह नहीं कि आपको तोता रटन की तरह माला फेरनी होगी। मेरी दृष्टि में आचार, विचार और व्यवहार की शुद्धता का नाम धर्म है।"५ इसी संदर्भ में उनका निम्न उद्धरण भी विचारोत्तेजक है --- "मैं धर्म को जीवन का अभिन्न तत्त्व मानता हूं। इसलिए मैं बार-बार कहता हूं, भले ही आप वर्ष भर में धर्मस्थान में न जाएं, मैं इसे क्षम्य मान लूंगा। बशर्ते कि आप १. जैन भारती, २१ जून १९७० । २. सफर : आधी शताब्दी का, पृ० ८४ । ३. विज्ञप्ति सं० ८०७ । ४. जैन भारती, ३ मार्च १९६८ । ५. दक्षिण के अंचल में, पृ. १७६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003117
Book TitleAcharya Tulsi Sahitya Ek Paryavekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages708
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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