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________________ .१२६ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण सही पथ पर ले चले। फिर चाहे वह जैन, बौद्ध, मुस्लिम या ईसाई कोई भी हो । किसी भी जाति, दल या समाज का हो ।" I ऐसे हजारों प्रसंगों को उद्धृत किया जा सकता है जो अणुव्रत के व्यापक, असाम्प्रदायिक और सार्वजनीन स्वरूप को प्रकट करते हैं । त्याग साम्प्रदायिक उन्माद को दूर करने हेतु उनका चिन्तन है कि जितना बल उपासना पर दिया जाता है, उससे अधिक बल यदि क्षमा, सत्य, संयम, आदि पर दिया जाए तो धर्म प्रधान हो सकता है और सम्प्रदाय गौण । "" उनके विशाल चिन्तन का निष्कर्ष यही है कि धर्म वहीं कुण्ठित होता है, जहां धार्मिक या धर्मनेता धर्म की अपेक्षा सम्प्रदाय की प्रतिष्ठा का ख्याल अधिक रखते हैं ।" धार्मिक सद्भाव आचार्य तुलसी ने धर्म के क्षेत्र में एकता और समन्वय का उद्घोष किया है। उन्हें इस बात का आश्चर्य होता है कि जो धर्म एक दिन सभी प्रकार के झगड़ों का निपटारा करता था, उसी धर्म के लिए लोग आपस में लड़ रहे हैं। साम्प्रदायिक उन्माद से होने वाली हिंसा एवं अकृत्य को देखकर वे अनेक बार खेद प्रकट करते हुए कहते हैं " धार्मिक समाज के हीनत्व की बात जब भी मेरे कानों में पड़ती है, मुझे अत्यन्त पीड़ा की अनुभूति होती है। मैं सहअस्तित्व और समन्वय में विश्वास करता हूं । इसलिए मैंने सभी समाजों और सम्प्रदायों के साथ समन्वय साधने का प्रयत्न किया है। इस संदर्भ में उनकी निम्न उक्ति मननीय है - " एक धर्माचार्य होते हुए भी मुझे खेद के साथ कहना पड़ता है कि दो विरोधी राजनेता परस्पर मिल सकते हैं, शांति से विचार-विनिमय कर सकते हैं, किन्तु दो धर्माचार्य नहीं मिल सकते । धर्म गुरुओं की पारस्परिक ईर्ष्या, कलह और विद्वेष को देखकर लगता है पानी में आग लग गई । बंधुओ ! मैं इस आग को बुझाना चाहता हूं । और इसके लिए आप सबका सहयोग चाहता हूं । 3" निम्न दो उद्धरण भी उनके उदार मानस के परिचायक हैं— I "मैं चाहता हूं कि भारत के सभी धर्म फले-फूलें | अपनी बात कहता हूं कि मैं किसी धर्म पर आक्षेप करता नहीं करना चाहता नहीं और करने देता नहीं ।' 8 १४ १. क्या धर्म बुद्धिगम्य है ? पृ० १३ । २. विवरण पत्रिका, अप्रैल १९४७ । ३. दक्षिण के अंचल में, पृ. ३४५ । ४. एक बूंद : एक सागर, पृ० १७२२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003117
Book TitleAcharya Tulsi Sahitya Ek Paryavekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages708
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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