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________________ ११६ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण है ? मैं उस समय भी अपनी साधना में था, आज भी अपनी साधना में हूं। तुम्हारे प्रति मुझे कोई रोष नहीं है। हां, इस बात की प्रसन्नता है कि किसी भी समय यदि मनुष्य में अध्यात्म के भाव जागते हैं तो वह श्रेय का पथ है।" यह घटना उनके सहिष्णु व्यक्तित्व की कथा कह रही है। आलोचनाएं सुन-सुनकर आचार्यश्री की मानसिकता इतनी परिपक्व हो गयी है कि उनके मन पर विरोधी वातावरण का कोई विशेष प्रभाव नहीं होता। विनोबा भावे के छोटे भाई शिवाजी भावे महाराष्ट्र यात्रा में आचार्यश्री से मिले । मिलने का प्रयोजन बताते हुए उन्होंने कहा--"आपके विरोध में प्रकाशित साहित्य विपुल मात्रा में मेरे पास पहुंचा है । उसे देखकर मैंने सोचा, जिस व्यक्ति के विरोध में इतना साहित्य छपा है, जो विरोध का प्रतिकार विरोध द्वारा नहीं करता, निश्चय ही वह कोई प्राणवान् एवं जीवन्त व्यक्ति होना चाहिए। आपसे मिलने के बाद मन में आता है कि यदि मैं यहां नहीं आता तो मेरे जीवन में बहुत बड़ा धोखा रह जाता।" युवाचार्य महाप्रज्ञजी कहते हैं -- "ऐसा लगता है कि आचार्य तुलसी की जन्म कुंडली ख्याति और संघर्ष की कुंडली है। ख्याति और संघर्ष को अलग-अलग नहीं किया जा सकता। ख्याति संघर्ष को जन्म देती है और संघर्ष ख्याति को जन्म देता है । यह अनुभव से निष्पन्न सचाई है।" आचार्यश्री के जीवन में अनेक बार बाह्य और अंतरंग संघर्ष आये हैं । पर उन्होंने हर संघर्ष को समताभाव से सहन किया है। आचार्यश्री देवास में प्रवचन कर रहे थे। अचानक कुछ अज्ञानी लोगों ने पत्थर फेंका । वह आचार्यश्री की पीठ पर लगा पर वे शांत रहे और इस घटना को तटस्थ भाव से देखते रहे। एक बार वे उज्जैन के रास्ते से गुजर रहे थे। एक भाई ने इत्र एवं फूलमाला से स्वागत किया। पर आचार्यश्री मुस्कराकर आगे बढ़ गए। आचार्यश्री दोनों घटनाओं में मध्यस्थ रहे। न क्रोध, न प्रसन्नता । इन दोनों घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में वे स्वानुभव की चर्चा करते हुए कहते हैं ---"समय कितना विचित्र होता है । देवास में पर्वतपुत्र (पत्थर) से कुछ लोगों ने स्वागत किया तो यहां पर तरु वरपुत्र (पुष्प) से स्वागत हो रहा है। पर हम तो दोनों को ही अस्वीकार करते हैं। वे कहते है-''मैं अपने विषय में अनुभव करता हूं कि जैसे-जैसे अहिंसा का मर्म हृदयंगम हुआ है, वैसे-वैसे अधिक मध्यस्थ बना हूं।" महाश्रमणी साध्वी प्रमुखा कनकप्रभाजी के शब्दों में उनका व्यक्तित्व निन्दा के वातूल से विचलित नहीं होता तथा प्रशंसा की थपकियों से प्रमत्त नहीं बनता, इसलिए वे महापुरुष हैं। इन घटनाओं के आलोक में आचार्य तुलसी की अहिंसा का मूर्तरूप स्वतः हमारे दृष्टिपथ पर अवतरित हो जाता है। उनकी यह तेजस्वी अहिंसा दूसरों के लिए भी अहिंसा, प्रेम और मैत्री का बोधपाठ बन सकती है। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003117
Book TitleAcharya Tulsi Sahitya Ek Paryavekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages708
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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