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________________ ८६/ भगवान् महावीर एकाग्रता - जो साधक दर्शन, ज्ञान और चारित्र - इन तीनों में एक साथ प्रवृत्त होता है, उसका श्रामण्य ही परिपूर्ण होता है । से २७. पुरिसा ! सच्चमेव समभिजाणाहि । ( आ. ३ / २ / ६५ ) - पुरुष ! तू सत्य का ही आचरण कर । २८. सच्चस्स आणाए उपट्ठिए से मेहावी मारं तरति । ( आ. ३/३/६६ ) - जो सत्य की आज्ञा में उपस्थित है, वह मेधावी मृत्यु को तर जाता २९. सच्चं लोगम्मि सारभूयं ! - सत्य ही लोक में सार है । ३०. रागेण व दोसेण व मोहेण व मोसभासपरिणामं । जो पजहइ साहु सया विदियवयं होइ तस्सेव ।। (प्र. २/ २ ) (णि. सा. ५७ ) - साधु वही है जो राग-द्वेष या मोहवश भी असत्य वचन की भावना कभी नहीं करता। यथार्थ में वैसे मुनि के ही दूसरा महाव्रत (सत्य महाव्रत) होता है । ३१. माया व होइ विस्ससणिज्जो पुज्जो गुरुव्व लोगस्स । पुरिसो हु सच्चवाई होदि हु सुणि उल्लओव्व पिओ ।। For Private & Personal Use Only (भ. आ. ८३७ ) - सत्यवादी पुरुष माता की भांति विश्वसनीय, गुरु की भांति जनता द्वारा पूजनीय और विद्वान की भांति प्रिय होता है । ३२. सच्चं हि तवो सच्चम्मि संजमो तह य सेसया वि गुणा । । सच्चं णिबंधणं हि य गुणाणमुदधीव मच्छाणं । (भ.आ. ८४२ ) - सत्य ही तप है। सत्य में ही संयम और शेष सभी गुण समाहित जैसे समुद्र मछलियों का आश्रय स्थल है, वैसे ही सत्य सभी गुणों का हैं । आश्रय स्थल है। - Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003115
Book TitleBhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages110
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Children, & Principle
File Size5 MB
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