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________________ दर्शन और उद्बोधन / ८५ ममत्तिं परिवज्जामि, णिम्ममत्तिमुवट्ठिदो । आलवणं च मे आदा, अवसेसाइं वोसरे । । (मूला. २/४५ ) - मैं निर्ममत्व होकर ममत्वभाव का परिहार करता हूं। अब इस साधना में आत्मा ही मेरा आलंबन है। शेष सबका मैं विसर्जन करता हूं। २२. जह मम न पियं दुक्खं, जाणिय एमेव सव्वजीवाणं । न हणइ न हणावइ य, सममणती तेण सो समणो ।। (अनु. ७०८ गा. ३) जैसे मुझे दु:ख प्रिय नहीं है, वैसे ही सब जीवों को दुःख प्रिय नहीं है। यह जानकर जो किसी का वध नहीं करता और नहीं करवाता, सबके प्रति सम रहता है, इसलिए वह श्रमण है । २३. समणो समसुहदुक्खो, भणिदो सुद्धोवओगोत्ति । ( प्रव. १ / १४ ) - जो सुख-दुःख में सम है, वही श्रमण है । वही शुद्ध उपयोग में वर्तमान है । २४. आगमहीणो समणो, णेवप्पाणं परं वियाणादि । ( प्रव. ३/३२ ) - आगमज्ञान से शून्य श्रमण न स्वयं को जान पाता है और न दूसरों को । २५. आगमचक्खू साहू, इन्द्रियचक्कूणि सव्वभूदाणि । ( प्रव. ३/३४) - श्रमण की आंख है केवल आगम । शेष सभी प्राणी इन्द्रिय-चक्षु वाले होते हैं। श्रमण आगम की आंख से देखता है, शेष प्राणी इन चर्म चक्षुओं से । २६. दंसणणाणचरित्तेयु तीसु जुगवं समट्ठिदो जो दु । एयग्गदो त्ति मदो, सामण्णं तस्स पडिपुण्ण । । Jain Education International For Private & Personal Use Only ( प्रव. ३ / ४२ ) www.jainelibrary.org
SR No.003115
Book TitleBhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages110
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Children, & Principle
File Size5 MB
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