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________________ ५८/ भगवान् महावीर कुछ साधुओं के पुराने संस्कार जागृत हो उठते और जाति एवं वर्ग का अहं उन्हें सताने लग जाता । उस अहं के उपशमन के लिए भगवान् समता की सुधा का सिंचन करते। एक बार ऐसे प्रसंग आने पर भगवान् ने साधुओं को आमंत्रित कर कहा - 'मैंने समता धर्म का प्रतिपादन किया है। तुम सब समता के शासन में दीक्षित हुए हो । जाति, कुल और ऐश्वर्य का मद विषमता उत्पन्न करता है। तुम मद को छोड़ मृदुता के पथ पर आए, विषमता को छोड़ तुमने समता का वरण किया। क्या फिर उस पुराने पथ की स्मृति उचित है? तुम देखो, मद से उन्मत्त मनुष्य दूसरों की परछाईं की भांति देखता है। दूसरों का तिरस्कार करता है । दूसरों का तिरस्कार करने वाला विषमता के संसार में पर्यटन करता है । 'तुम ब्राह्मण, छत्रिय, उग्रपुत्र या लिच्छवि चाहे किसी भी जाति या कुल में उत्पन्न हुए, पर अब तुम समता के शासन में प्रव्रजित हो, अहिंसक होने के कारण परदत्तभोजी हो, फिर यह जाति और कुल का अभिमान कैसा? यह जाति और कुल तुम्हें त्राण नहीं दे सकता । विद्या और चरित्र का आचरण ही तुम्हें त्राण दे सकता है। इसलिए तुम जाति, कुल और ऐश्वर्य का मद मत करो। तुम सब गोत्रों से अतीत हो चुके हो। तुम मोक्ष पाना चाहते हो। वहां कोई गोत्र नहीं है । उसे वही पा सकता है, जो गोत्र के झमेले में उलझा नहीं होता । " ' तुममें से कोई पहले राजा रहा है और कोई नौकर या नौकर का १. सूत्रकृतांग १/१३/८ अण्णं जणं पस्सति बिंवभूयं । २. सूत्रकृतांग १/२/२/२ जो परिभवइ परं जणं, संसारे परिवत्तइ महं । ३. सूत्रकृतांग १/१३/१० जे माहणे खत्तिय जायए वा, तहुग्गपुत्ते तह लेच्छई वा । जे पव्वइए परदत्तभोई, गोत्तेण जे थब्भइ माणबद्धे । । ४. सूत्रकृतांग १/१३/११ न तस्स जाइ व कुलं व ताणं । नन्नत्थ विज्जाचरणं सुचिण्णं । । ५. सूत्रकृतांग १/१३/१६ ते सव्वगोत्तावगया महेसी । उच्च अगोत्तं च गतिं वयंति । । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003115
Book TitleBhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages110
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Children, & Principle
File Size5 MB
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