SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५६/भगवान् महावीर भगवान् हर तत्त्व को अनेकान्तदृष्टि से देखते। उसका सापेक्षवाणी से प्रतिपादन करते। सापेक्षवाणी द्वारा प्रतिपादित तत्त्व जिज्ञासु के लिए सहज सुबोध हो जाता। भगवान् कृतंजला नगरी के छत्रपलासक चैत्य में विराज रहे थे। कृतंजला के निकट ही श्रावस्ती नाम की नगरी थी। वहां स्कंदक नाम का परिव्राजक रहता था। एक दिन पिंगल निर्ग्रन्थ स्कंदक के परिव्राजकावास में गए और पूछा लोक सांत है या अनंत? जीव सांत है या अनंत? सिद्धि सांत है या अनंत? सिद्ध सांत है या अनंत? स्कंदक इन प्रश्नों का संतोषजनक उत्तर नहीं दे सके। वे स्वयं संदेह से घिर गए। उन्हें पता चला कि कृतंजला के छत्रपलासक चैत्य में भगवान् महावीर विहार कर रहे हैं। वे परिव्राजकावास से प्रस्थान कर भगवान् महावीर के पास पहुंचे। भगवान् ने स्कंदक के प्रश्नों का उद्घाटन कर दिया। वे आश्चर्यचकित रह गए। भगवान् ने कहा-'स्कंदक! यह लोक सांत भी है, अनंत भी है। द्रव्य और क्षेत्र की अपेक्षा से लोक सांत है। काल और पर्याय की अपेक्षा से वह अनंत है। इसी प्रकार जीव, सिद्धि भी द्रव्य और क्षेत्र की अपेक्षा से सांत हैं। काल और पर्याय की अपेक्षा से वे अनंत हैं।' भगवान् के उत्तर से स्कंदक को अनेकान्तदृष्टि प्राप्त हो गई। वे स्वयं सत्य के व्याख्याता बन गए। ___भगवान् ने अनेकान्तदृष्टि देकर हजारों-हजारों व्यक्तियों को चक्षुष्मान् बनाया। भगवान् के संघ में चौदह हजार साधु और छत्तीस हजार साध्वियां दीक्षित हुईं। लाखों गृहस्थ श्रावक (अणुव्रती) बने। उनके अनुयायियों, प्रशंसकों की संख्या काफी बड़ी थी। उनमें उस युग के सुप्रसिद्ध व्यक्ति सम्मिलित थे। भगवान् जातिवाद को अतात्त्विक और समता-विरोधी मानते थे। इसलिए उनके संघ में सभी जातियों के लोग दीक्षित हुए। उनके ग्यारह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003115
Book TitleBhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages110
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Children, & Principle
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy