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________________ दो परंपराओं के बीच सीधा संवाद १६३ प्रत्येक व्यक्ति के मन में अपनी एक मान्यता होती है। कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है, जो मान्यता बनाए न बैठा हो। ऐसे लोग, जो समझदार नहीं माने जाते, वे कहते हैं-मैं ऐसा मानता हूं, मेरी ऐसी मान्यता है। पहले मान्यता होती है, फिर धारणा बन जाती है। व्यक्ति उस बात को मजबूती के साथ पकड़ लेता है, छोड़ता नहीं है। जो चिरकाल से पोषित होती है, वह अस्थि और मज्जागत हो जाती है। संस्कार की समस्या ज्ञातासूत्र का प्रसंग है। एक सेठ की लड़की की शादी करने के लिए भिखारी को लाया गया। वह विषकन्या थी। विषकन्या के साथ कौन शादी करता? भिखारी तैयार हो गया। उसे स्नान करवा कर नए कपड़े पहनाए गए। उसके पास जो भिक्षा पात्र था, उसे फेंकने लगे। भिखारी चिल्लाया-इसे मत फेंको। उसके साथ संस्कार जुड़ गया था। कर्मचारी बाले-अरे! कैसी मूर्खता की बात करते हो! सेठ अपनी कन्या का विवाह तुम्हारे साथ कर रहा है। वह तुम्हें प्रचुर धन देकर धनपति बना देगा। फिर भिक्षापात्र की जरूरत क्या रहेगी? भिखारी इतना कहने पर भी शांत नहीं हुआ। कर्मचारियों ने सेट को सारी स्थिति से अवगत कराया। सेठ ने कहा-भिक्षापात्र को मत फेंको। उसे इसके पास ही रहने दो। इतने वर्षों से इस भिक्षापात्र के साथ उसका जो गहरा संस्कार जुड़ा हुआ है, वह सहसा कैसे छूट सकता है? जिस भिखारी को अपार संपत्ति मिल रही थी, वह भिक्षापात्र को फोड़ना नहीं चाहता, छोड़ना नहीं चाहता। इस स्थिति में हमने जो मान्यताएं और धारणाएं बना रखी हैं, चिरकाल से जिन्हें पोषण मिल रहा है, वे सहसा कैसे टूट सकती हैं? बहुत कठिन प्रश्न है परिवर्तन का। राजपुरोहित ने सोचा-चिरकाल से पोषित धारणाएं एकाएक कैसे टूट गई? यह परिवर्तन कैसे हुआ? अब क्या किया जाए? मुझे अपनी मान्यताओं के द्वारा ही इनके मानस को बदलना होगा। राजपुरोहित बोला-'कुमारो! तुम मुनि बनना चाहते हो, पर जरा सोचो अभी तुम्हें अध्ययन करना है। हम ब्राह्मण हैं। हमारी अपनी एक परम्परा है। तुम उसके अनुसार चलो, वेदों को पढ़ों। ब्राह्मणों को भोजन कराओ, स्त्रियों का भोग करो। पुत्र उत्पन्न करो। वेदों को जानने वाले इस प्रकार कहते हैं कि जिसके पुत्र उत्पन्न नहीं होता, उसकी गति नहीं होती।' अहं तायगो तत्थ मुणीण तेसिं, तवस्स बाधायकर वयासी। इयं वयं वेयविओ वयंति, जहा न होई असुयाण लोगो।। अहिज्ज वेए परिविस्स विप्पे, पुत्ते पडिट्ठप्प गिहसि जाया। भोच्चाण भोए सह इत्थियाहिं, आरण्णगा होइ मुणी पसत्था ।। 'अभी तुम किशोर हो। जब तक युवा रहो, तब तक भोग भोगो। यह अवस्था भोग भोगने की है, मुनि बनने की नहीं। जब बूढ़े बनो, तब आरण्यक मुनि बन जाना।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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