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________________ अरणिका के भयग्रस्त बदन पर आशा की मनोरम रेखाएं नाचने लगीं। प्रार्थना के बल पर प्राप्त मंगल विजय की ऊर्मियां अठखेलियां करने लगीं। विश्व का संत्रास उसके नयनों में समा जाने को आतुर हो रहा है। उसकी चरण-भंगिमा में नृत्य की सिद्धि का भाव छलक रहा है। उसकी अंगुलियां मृत्यु को पीछे ढकेलने की मंगल कविता रच रही हैं और उसके शरीर का भाव पुकार रहा है- प्रकृति पत्थर हृदय वाली नहीं है। वह प्रार्थना की करुणा से और जीवन की तमन्ना से भीग जाती है। अन्तर की प्रार्थना मृत्यु पर भी विजय प्राप्त कर लेती है और वह महादावानल को भी क्षण-भर में शांत कर देती है। देवी रूपकोशा का अद्भुत नृत्य पूरा हुआ। इस भव्य साधना को देखकर संगीताचार्य सुमित्रानन्द बोल पड़े'मां! धन्य है तेरी साधना ! आज तूने ऐसा नृत्य किया है, जिसकी स्मृति सदा बनी रहेगी। मैं आशीर्वाद देता हूं कि तेरी यह साधना भारत का गौरव बने।' गुरुदेव ने भी उल्लसित हृदय से आशीर्वाद दिया। रूपकोशा दोनों आचार्यों को नमस्कार कर अपनी मां के पास जा बैठी। मां ने बेटी को हृदय से लगाकर आशीर्वाद दिया। रात्रि का तीसरा प्रहर बीत चुका था। एक मंगल प्रार्थना से उत्सव सम्पन्न हुआ। आर्य स्थूलभद्र और कोशा ६२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003105
Book TitleArya Sthulabhadra aur Kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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