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________________ __ भैरवताल की महाध्वनि सुमित्रानंद के मृदंग से प्रारम्भ हुई। अरण्य की भयानकता आचार्यदेव की महार्घवीणा से प्रकट होने लगी। और कोशा के चरणयुगल मंच पर नाचने लगे। तांडव और हास्य का मिश्रण होने लगा। ऐसा लगा कि भयानक जंगल में दावानल सुलग गया है। अरण्य के पशु-पक्षी चीत्कार कर रहे हैं। एक अरण्यबाला इस भयावह दावानल में फंस गई है। चारों ओर से विपत्तियां मुंह बाए आ रही हैं। इस दावानल से उबरने के लिए अरण्यबाला प्रयत्न कर रही है। अरणिका का पुरुषार्थ विचित्र है। भय से विह्वल नयन दावनल से घिरी दिशाओं को देख रहे हैं। प्राणों को बचाने में तत्पर चरण मार्ग की खोज में चंचल हो रहे हैं। बालिका की नृत्य-मुद्राएं आशा और निराशा को जीवंत बना रही है....किन्तु प्रकृति के समक्ष मानवीय पुरुषार्थ सीमित ही होता है। अरणिका थककर चूर हो गई है। वह प्रकृति से अनुनय-विनय करती है। वह मृत्यु का आलिंगन करने से पूर्व प्रकृति को बदलने का परम पुरुषार्थ करती है। इस पुरुषार्थ में मात्र विनय नहीं है....मात्र आशा की गाथा नहीं है....इसमें है केवल प्रार्थना....केवल विनती....विराट् प्रकृति की गोद में वामन मानव की अबोल करुणा! आचार्य की वीणा भयानक दावानल में से करुणा का एक राग निकालती है। सुमित्रानंद का भैरवताल विलंबित होकर आशा को पुकारने लगता है। दूसरे सारे वाद्य भी अरणिका की प्रार्थना को आकार देते हैं। कोशा की नृत्य-मुद्राएं अरणिका की आन्तरिक वेदनाओं का प्रतिनिधित्व करती हुई प्रकृति को मना रही हैं। ऐसा लग रहा था कि मानो प्रकृति अरणिका की प्रार्थना को स्वीकार कर दावानल को शांत करने में कृतसंकल्प हो रही है। अचानक ही आकाश में घनघोर घटा उमड़ पड़ी और मूसलाधार वर्षा से सारी पृथ्वी आप्लावित हो गई। प्रकृति का यह हास्य आशा बिखेरने लगा। घटाओं के साथ स्पर्धा करती हुई दावानल की ज्वालाएं धीरे-धीरे शांत होने लगीं, परास्त होकर भूमि पर बिखर गईं। .. पहा रहा है। आर्य स्थूलभद्र और कोशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003105
Book TitleArya Sthulabhadra aur Kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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