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________________ ७४ जैनदर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन कहते हैं और चूंकि वह कर्मरूप शत्रुओं को जीत लेता है, उसे "जिन" भी कहते हैं । इन्हें अर्हत भी कहा जाता है और ये अनन्त चतुष्टय प्राप्त होते हैं । अर्हन्त कर्मबल से सर्वथा मुक्त नहीं होते किन्तु सिद्ध उससे सर्वथा मुक्त होते हैं । इससे उनका पद अहंत से ऊंचा होता है फिर भी सिद्धों के बाद अहंतों को नमस्कार किया जाता है-णमो अरिहंताण, णमो सिद्धाणं । इतिहास इसका साक्षी है कि जब कृष्ण-भक्तों ने जैन धर्मावलम्बन किया तो २२ वें तीर्थंकर अरिष्टनेमि को कृष्ण का रूप माना गया। इसी तरह अनेक हिन्दू देवी-देवताओं का जैन-धर्म में अनुप्रवेश हुआ । इसीलिये आज भी जैनों के बीच वैष्णव और गैर-वैष्णव दो भाग हैं । जैन सिद्ध और अर्हत की उसी प्रकार पूजा करते हैं जिस प्रकार ईश्वर की अर्चना और उपासना होती है । इसलिये यद्यपि जगत-स्रष्टा ईश्वर का यहां अभाव है फिर भी न तो उपासना और भक्ति-भावना का अभाव है न उसके कर्मकाण्डों का? अहंतों और सिद्धों की विभूतियों से मानव प्रेरणा प्राप्त करता हुआ मोक्षमार्ग में आगे बढ़ता है । जैन-धर्म में उपासना दया और क्षमा के लिये नहीं बल्कि अन्तः शुद्धि एवं प्रेरणा के लिये है। जो कर्म के अकाट्य-नियम में विश्वास करेगा, वह अनुकम्पावाद को कैसे मानेगा ? कर्म का फल तो मिलना ही है। इस दायित्व से उसे कोई छुटकारा नहीं दिला सकता। वास्तव में जैन-धर्म स्वावलम्बन का धर्म है । प्रार्थना कोई प्रशस्ति नहीं जिससे कुछ लाभ मिल सके, यह तो मोक्ष-साधना का मार्ग है। __ जैन दर्शन की आस्तिकता का एक और भी आयाम है । आस्तिकवाद के चार अंग होते हैं-'आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद और क्रियावाद', आया बाई, लोयाबाई, कम्माबाई, किरियाबाई ।" जैन-दर्शन इन चारों तत्वों को स्वीकार करता है, अतः इसे आस्तिक मानना चाहिये। असल में जैन-धर्म बहिर्मुख न होकर अन्तर्मुख है । इसलिये बाह्य-जगत् या मंदिर में भगवान को नहीं खोजता। भगवान तो घट-घट का वासी है। प्रत्येक जीव या आत्मा ईश्वर है। स्वाभाविक स्वरूप में तो प्रत्येक जीव अनन्त चतुष्टय को प्राप्त है ही । यह ठीक है कि कर्म-पुद्गल के प्रभाव से उसकी देवी शक्तियों का विकास नहीं हो पाता । लेकिन ज्योंही वह संवर और निर्जर के बाद जीव अपने स्वाभाविक स्वरूप में आ जाता है तो वह अनन्त चतुष्टय को प्राप्त हो जाता है । हम तीर्थकर या अर्हत, सिद्ध आदि की पूजा इसलिये नहीं करते हैं कि हम उनसे बिना कर्म किये कुछ प्राप्त कर सकते हैं बल्कि इसलिये कि उन्होंने पूर्णता प्राप्त कर ली है। अतः वे जीवंत आदर्श हैं । उनसे हमें पूर्णता प्राप्ति या आत्म साक्षात्कार के लिये मार्ग-दर्शन मिलता है। प्रेरणा उनकी किन्तु पुरुषार्थ जीव का ही होगा। अत: जैनों की आस्तिकता की भित्ति "आत्मवाद" पर खड़ी है । उपनिषद् भी तो यही कहती है - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003097
Book TitleJain Darshan Chintan Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjee Singh
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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