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________________ ५६ जैनदर्शन : चिन्तन - अनुचिन्तन से यदि उनका परमार्थ और व्यवहार अलग-अलग सत्य हो सकता है तो उसी प्रकार अपेक्षाभेद से एक ही नर सिंह एक भाग से नर होकर भी द्वितीय भाग की अपेक्षा से सिंह है। एक ही धूपदान अग्नि से संयुक्त होकर भी पकड़ने वाले भाग में ठण्डी एवं अग्नि-भाग में उष्ण है । यही कारण है कि म. म. फणिभूषण अधिकारी एवं डॉ. गंगानाथ झा जैसे विद्वानों को कहना पड़ा है कि " इस सिद्धांत में बहुत कुछ ऐसा है जिसे वेदान्त के आचार्यों ने नहीं समझा "यदि वे जैन धर्म के मूल ग्रंथों से देखने का कष्ट उठाते तो जैन धर्म का विरोध करने की कोई बात नहीं मिलती ।" इसे म. म. अधिकारी अन्याय एवं अक्षम्य मानते हैं । डॉ. राधाकृष्णन् का यह समझना कि अनेकांतस्याद्वाद से हमें केवल आपेक्षिक अर्द्ध सत्य का ही ज्ञान हो सकता है, हम पूर्ण सत्य को नहीं जान सकते । दूसरे शब्दों में यह हमें अर्द्ध सत्यों के पास लाकर पटक देता है, और इन्हीं अर्द्ध-सत्यों को पूर्ण सत्य मान लेने की प्रेरणा करता है । परन्तु केवल निश्चित अनिश्चित अर्द्ध-सत्यों को मिलाकर एक साथ रख देने से वह पूर्ण सत्य नहीं कहा जा सकता । "- - कुछ पूर्वाग्रह से भरा है | अनेकांत अर्द्ध-सत्य को हरगिज पूर्ण सत्य मानने की प्रेरणा नहीं देता बल्कि अर्द्ध-सत्यों का समन्वय करने का प्रयास करता है । प्रमाणवार्तिक ( ३ / १८०-४) में धर्मकीर्ति के अनुसार तत्त्व एकान्त रूप ही हो सकता है, क्योंकि यदि सभी तत्त्वों को उभय रूप यानी स्व-पर रूप माना जाय तो पदार्थों का वैशिष्ट्य समाप्त हो जायगा । वस्तुतः धर्मकीर्ति भूल जाते हैं कि दो द्रव्यों में एक जातीयता होने पर स्वरूप की भिन्नता और विशेषता होती ही है । द्रव्य और पर्याय में भी भेद है ही । धर्मकीर्ति के शिष्य प्रज्ञाकर गुप्त प्रमाणवार्तिकालंकार पृ. १४२) एवं हेतु बिन्दु के टीकाकार अर्चट (टीका पृ. १४६ ) भी उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यात्मक परिणामवाद में दूषण पाते हैं और यह मानते हैं कि जब व्यय होगा तो सत्त्व कैसे होगा ? बौद्धाचार्य संभवतः भूल जाते हैं कि प्रत्येक स्वलक्षण परस्पर भिन्न है, एक दूसरे रूप नहीं हैं । अतः रूपस्वलक्षणत्वेल अस्ति है और रसादि स्वलक्षणत्वेन नास्ति है, अन्यथा रूप और रस मिलकर एक हो जायेंगे । शातरक्षित ( तत्त्व संग्रह ) ने " स्याद्वाद - परीक्षा" नामक एक स्वतन्त्र ही प्रकरण में अनेकांत के उभयात्मकतावाद पर प्रहार किया । धर्मकीर्ति के टीकाकार कर्णकगोमि ने यह महसूस किया कि 'जैनों का यह दर्शन नहीं है कि सर्व सर्वात्मक है या सर्वा सर्वात्मक नहीं है ।" अतः प्रकृत दूषण नहीं है । विज्ञप्तिमात्रता सिद्धि (२/२) में भी अनेकांत पर "दो धर्म एक धर्म में असिद्ध है" का दूषण लगाना व्यर्थ है क्योंकि प्रतीति के बल से ही उभयात्मकता सिद्ध होती है । तत्त्वोप्लवसिंह के लेखक जयराशि भट्ट भले ही अनेकांत का खंडन करते हैं लेकिन जब वे कहते हैं कि वस्तु न नित्य है, न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003097
Book TitleJain Darshan Chintan Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjee Singh
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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