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________________ ५४ जैनदर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन साथ भिन्न होने पर भी मिल सकती हैं । चिंतन एवं कर्म भिन्न हैं, किन्तु विरोधी नहीं। शीत-उष्ण, पतला-मोटा, ऊंचा-नीचा-आदि द्वंद्वों में विभाजन रेखा नहीं है जहां पर एक समाप्त होकर दूसरा आरम्भ होता हो। एक ही जल भिन्न स्थिति में उष्ण या शीत कहा जा सकता है। एक रोटी को दूसरे की अपेक्षा मोटी या पतली दोनों ही कही जा सकती है। यही कारण है कि "युक्त्यनुशासन" में सर्वोदय-तीर्थ को अनेकात्मक बताते हुए सामान्य-विशेष, द्रव्य-पर्याय, विधि-निषेध, एक-अनेक, आदि अशेष धर्मों को उसमें समाहित बताया गया है। इसमें एक धर्म मुख्य है तो दूसरा धर्म गौण है। उसमें असंगति अथवा विरोध के लिए कोई अवकाश नहीं है । जो विचार पारस्परिक अपेक्षा का प्रतिपादन नहीं करता, वह सर्वान्त शून्य माना जाता है जिसमें किसी भी धर्म का अस्तित्व नहीं बन सकता और न उसके द्वारा पदार्थ-व्यवस्था ही ठीक बैठ सकती है। अतः या अनेकांत या सर्वान्तवान शासन ही सभी दु:खों का अन्त करने वाला है और यही आत्मा के पूर्ण अभ्युदय का साधक है । अनेकांत सभी निरपेक्ष नयों या दुर्नयों का अन्त करने वाला है । जो निरपेक्ष है, वही मिथ्या-दर्शन है, वही एकांतवाद रूप है। सर्वोदय का मूलाधार समानता है । वस्तुस्वातंत्र्य और समानता, ये दो प्रबल दीप-स्तम्भ हैं, वस्तु का स्वरूप अनेकान्तात्मक है । प्रत्येक वस्तु अनेक गुणों और धर्मों से युक्त है। अनेकांत शब्द 'अनेक' और 'अन्त' दो शब्दों से मिलकर बना है । अनेक का अर्थ होता है--एक से अधिक । एक से अधिक दो भी हो सकता है और अनन्त भी । दो और अनन्त के बीच भनेक अर्थ सम्भव हैं । 'अन्त' का अर्थ है धर्म या गुण । प्रत्येक वस्तु में अनन्त गुण विद्यमान हैं । वस्तुतः अनन्तगुणात्मक वस्तु ही अनेकांत है। किन्तु जहां अनेक का अर्थ दो लिया जायगा वहां अन्त का अर्थ धर्म होगा । तब यह अर्थ होगा-परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले दो धर्मों का एक ही वस्तु में होना अनेकांत है। यहां एक प्रश्न उठता है कि यद्यपि जैन दर्शन अनेकान्तवादी कहा जाता है तथापि यदि उसे सर्वथा अनेकांतवादी मानें तो यह भी तो एकान्त हो जायगा । अतः अनेकान्त में भी अनेकान्त को स्वीकार करना होगा। जैन दर्शन न सर्वथा एकान्तवाद को मानता है न सर्वथा अनेकांतवाद को। यही अनेकान्त में अनेकांत है---- अनेकान्तोप्यनेकांतः प्रमाणनयसाधनः । अनेकांतः प्रमाणाच्चे तदेकान्तोऽपितान्नयात् ॥ स्वयंभूस्तोत्र ॥१०३॥ यानी सर्वांशग्राही प्रमाण की अपेक्षा से वस्तु अनेकांत स्वरूप है एवं अंशग्राही नय की अपेक्षा से वस्तु एकांत रूप है। यानी वह कथंचित् एकान्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003097
Book TitleJain Darshan Chintan Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjee Singh
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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