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________________ १४८ जैनदर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन प्रश्न मानव-समूहों की व्यवस्था का प्रश्न है-मानव-समूह को कभी धनी-गरीब के कारण वर्ण, ब्राह्मण-शूद्रादि के नाम पर वर्ण के काल्पनिक एवं कृत्रिम आधार पर विभाजित किया गया है। किंतु मानव-समूह की व्यवस्था विभाजन के सही आधार, मानव की बुद्धि और शक्ति (जिसे हम सामर्थ्य कह सकते हैं) के आधार पर नहीं हो सकी। अतः मूल प्रश्न है कि यह सामर्थ्य किसके हाथ में रहे ? एक समर्थ व्यक्ति सबके लिए करे या अनेक लोग मिल कर या फिर सब मिल कर करें ? यही तीन विकल्प तो हैं। एक व्यक्ति के द्वारा की जानेवाली व्यवस्था में उससे अधिक उसकी वंश-परम्परा से अधिक निरंकुशता, अहं-प्रमाण एवं दायित्वहीनता की संभावना रहती है; अल्पायतनपद्धति में व्यवस्था के चाहे जितने भी स्वरूप क्यों न हों, उसमें केन्द्रवाद, हिंसा वाद एवं यंत्रवाद को प्रश्रय मिलता है। कुछ लोगों के नाम पर बहुसंख्यायतन पद्धति भी शस्त्र-धारण में निपुण अल्पसंख्य-सैन्यशक्ति पर ही अन्ततोगत्वा अवलम्बित होती है । फल यह होता है कि वास्तविक एवं जीवननिष्ठ जनतंत्र का विकास हो ही नहीं पाता है। जनता कभी भी वादनिष्ठ या पद्धतिनिष्ठ नहीं होती, वह तो जीवननिष्ठ होती है। वाद तत्त्वज्ञान से निकलते हैं, पद्धतियां व्यवहार से मिलती हैं । जनमानस का एक ही प्रयास होता है कि जीवन सुचारु ढंग से चले । जीवननिष्ठा का एक ही अर्थ है आकृत्रिमता और व्यवहार में सर्वव्यापकता । अकृत्रिम जीवननिष्ठाएं भले ही तात्कालिक दृष्टि से बद्धिष्णु एवं गतिशील हों, किंतु अन्ततोगत्वा उसका वेग मन्द हो जाता है । उसी प्रकार यदि जीवननिष्ठाएं सर्वव्यापक नहीं हुईं, तो फिर परस्पर-विरोध के संघर्ष में ही वे समाप्त हो जाएंगी। फिर शक्ति एवं सामर्थ्य कहां से आये ? इसलिये जनतंत्र एवं अहिंसा की जीवननिष्ठाओं में जब तक सर्वव्यापक सर्वमंगलकारी भावना नहीं जुड़ेगी, तब तक उसके प्रति सबों का सहज सम्पूर्ण सहकार भी प्राप्त नहीं होगा। जो जनतंत्र जितना ही अधिक व्यापक, व्यवस्थित एवं उत्सुक होगा, वह उतना ही अधिक जीवननिष्ठ एवं अहिंसा के समीप होगा। अहिंसा को केवल आकार ही नहीं, प्रकार या जीवन-सामग्री भी चाहिए। ४. जनतंत्र और अहिंसा को समान मान्यताएं (क) मानव-व्यक्तित्व की प्रतिष्ठा : व्यक्ति का व्यक्तित्व ही चरम मूल्य है । इसलिये मानवीय प्रतिष्ठा अपने-आप में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यही मानवीय प्रतिष्ठा जनतंत्र और अहिंसा की आधारशिला है । व्यक्ति का व्यक्तित्व मानवता की पवित्र धरोहर है। उसके साथ किसी भी प्रकार का खिलवाड़ हिंसा भी है और जनतंत्र-विरोधी भी। यह कोई संकीर्ण व्यक्तिवाद नहीं, अपितु साधुत्व समुन्नत प्रगतिशील एवं व्यापक व्यक्तिवाद है, जिसमें स्वार्थ के स्थान पर सेवा, पृथकत्व के बदले भ्रातृत्व एवं भोग के स्थान पर त्याग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003097
Book TitleJain Darshan Chintan Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjee Singh
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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