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________________ १३० जैनदर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन ही रह जाता था। कभी-कभी दो बड़ी-बड़ी सेनाओं को यूद्धाग्नि में झोंकने के बदले दोनों पक्षों के दो प्रधान वीरों के बीच ही द्वन्द्व-युद्ध से विजय-पराजय का निपटारा करा लिया जाता था । भीम-जरासंघ के बीच इसी प्रकार के द्वन्द्व युद्ध से दो जातियों का विग्रह बच गया । संक्षेप में, भारतीय संस्कृति ने विग्रह टालकर समन्वय की साधना के अनेक प्रयत्न किए हैं। देव-निर्माण की प्रयोगशाला में भी बहुदेववाद के अन्तर्गत असंख्य देवों का जल-थल-नभ के अनुसार वर्गीकरण, "त्रिमूर्ति" एवं "विश्वेदेवा" की कल्पना और फिर "एकदेव प्रजापति" एवं "विश्वकर्मा' का सृजन और अंत में "एक सद्विप्रा बहुधा वदन्ति" कहकर अद्वैत तक पहुंचना ही समन्वय-साधना की पराकाष्ठा है । आद्य शंकराचार्य ने पंचायतन-पूजा में सभी देवी-देवताओं की पूजा का अन्तर्भाव कर तथा पीछे मध्ययुगीन संतों ने सर्व-धर्म समभाव की भावना को उपस्थित कर वस्तुतः आत्मौपम्य भाव या विश्वात्मैक्य भाव प्रकट किया है । और तो और, भारतीय संस्कृति में इसी प्रकार वेद और ईश्वर तथा आत्मा की सत्ता को स्पष्ट अस्वीकार करने वाले भगवान् बुद्ध को तथा जैन धर्म के जन्मदाता भगवान् ऋषभदेव को अवतार (श्रीमद्भागवत, ५।२-६ अष्टम अवतार) के रूप में स्वीकार करना समन्वय-साधना को दिशा में ही एक उदात्त प्रयास है। लेकिन भारतीय संस्कृति को तो भगवान् ऋषभदेव ने मानो समय का समग्र-दर्शन ही प्रदान कर दिया। समस्त आत्माओं को स्वतंत्र परिपूर्ण और अखंड मौलिक द्रव्य मानकर अपनी तरह समस्त जगत् के प्राणियों को जीवित रहने का समान अधिकार स्वीकार करना ही अहिंसा के सर्वोदयी स्वरूप की शिक्षा है । विचार के क्षेत्र में अहिंसा को मानसरूप में प्रतिष्ठित करने के लिए अनेकांत आया जो वस्तु-विचार के क्षेत्र में दृष्टि की एकांगिता और संकीर्णता से उत्पन्न होने वाले मतभेदों को हटाकर मानस-समन्वय उत्पन्न होता है जिससे वीतराग चित्त की उद्भावना के लिए अनुकूलता पैदा होती है। इसी तरह वचन की निर्दोष तथा अनेकांत को अभिव्यक्त करनेवाली भाषाशैली के रूप में स्याद्वाद वाचनिक-समन्वय की साधना की ही अभियंत्रणा है, जहां स्ववाच्य को प्रधानता देता हुआ अन्य अंशों की उपेक्षा नहीं होती। इसीलिए तो धर्मतीर्थंकरों की स्याद्वादी के रूप में स्तुति की जाती धर्मतीर्थकरेभ्योऽस्तु स्याद्वादिभ्यो नमोनमः । ऋषभादि महावीरान्तेभ्यः स्वात्मोपलब्धये ॥ लघीयस्त्रीय श्लोक १ अहिंसा की साधना भारतीय-संस्कृति के लिए नई नहीं है लेकिन जैन संस्कृति ने अहिंसा को नि:श्रेयस के साधनों में इसे सबसे प्रमुख मानकर इसका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003097
Book TitleJain Darshan Chintan Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjee Singh
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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