SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११२ जनदर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन नचिकेता ने हाथ जोड़कर कह दिया "न वित्तेन तर्पणीयों मनुष्यो" याज्ञवल्क्य ने जब मैत्रेयी को सम्पत्ति देनी चाही तो उसने पूछा "क्य। यह लेकर मुझे सुख मिलेगा ? और जब याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया--"नहीं तो कह उठी-'ये नाहं नामृतास्यां किमहं तेन कुर्याम" "जिसको लेकर मुझे सुख नहीं मिलेगा, वह लेकर ही मैं क्या करूंगी? इसीलिये कहा गया है-- गोधन गजधन बाजिधन और रतनधन खान । जब आया संतोष धन सब धन भूरि समान ॥ फिर भी हमारी मूर्छा इतनी प्रचंड है कि हम "सुख" को बलि देकर सम्पत्ति संग्रह में लगे हैं । अतः हमें महावीर प्रिय नहीं, हमारे लिये तो बैंक बैलेंस ही महावीर है। हमारी इसी मूर्छा ने समाज को हिंसा प्रवण बना दिया। साम्यवाद इसी रहस्य को समझकर आगे बढ़ा और इतनी जल्दी इतना चमत्कार कर पाया। सच्चा साम्यवाद व्यक्तिगत सम्पत्ति को स्वीकार ही नहीं करता । इस दृष्टि से सच्चा साम्यवाद भगवान महावीर के अधिक निकट है । भगवान पूजा और चंदन से नहीं आचरण से प्रसन्न होते हैं। जिस अर्थव्यवस्था में व्यक्तिगत स्वामित्व नहीं रहे, सभी व्यक्ति को जीविका का अधिकार हो, व्यक्तिगत मुनाफे के लिये उपभोक्ताओं एवं श्रमिकों का शोषण नहीं हो तथा औसत लोगों की आमदनी में अंतर कम से कम हो, वहीं व्यवस्था अहिंसा को स्थायित्व प्रदान कर सकती हैं। अहिंसा के लिये अहिंसक अर्थ व्यवस्था एवं अहिंसक राज-व्यवस्था और अहिंसक-समाज एवं शिक्षणव्यवस्था भी चाहिये । लेकिन अर्थ मूल में है । इसलिए अपरिग्रह के बिना अहिंसा की साधना एक दिवास्वप्न है। यदि हत्या, खून हिंसा है तो आर्थिक शोषण, आर्थिक वैषम्य की वृद्धि को भी हिंसा ही समझिये । युद्ध में हिंसा भी है उन्माद भी है, अनियंत्रित संपत्ति संग्रह में हिंसा है और मूर्छा भी। धर्म-पुरुषों ने व्यक्ति की मूर्छा दूर करने के लिये अनवरत प्रयत्न किये, मार्क्स जोर साम्यवाद ने अर्थ व्यवस्था से परिग्रह दूर करने का यत्न किया । व्यक्ति तो समाज की ईकाई है । उसकी मूर्छा यदि दूर नहीं हुई तो साम्यवाद को संगीनों की छाया में रहना होगा। इसलिए व्यक्ति एवं समाज, अध्यात्म एवं साम्यवाद का समन्वय आवश्यक है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003097
Book TitleJain Darshan Chintan Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjee Singh
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy