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________________ ९४ जैनदर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन है, एवं अहिंसा की सूक्ष्मतम विवेचना की है। लेकिन "आयारो" अहिंसा-सिद्धांत को केवल व्यक्तिगत आचार तक ही सीमित नहीं करता, उसे वह सामाजिक-धर्म के रूप में प्रतिष्ठित करता है। युद्ध, शस्त्रीकरण या सिद्धांतहीन राजनीति कोई अलग-अलग तत्त्व नहीं है, इन सबों के मूल में हिंसा है। आज शस्त्र की शक्ति और व्यवहार में प्रवंचना का इतदा बाहुल्य हो गया है कि सामाजिक जीवन में हिंसा इसका अवश्यम्भावी परिणाम है। यदि हिंसा मात्र व्यक्तिगत आचार रहता है तो "अपरिग्रह" पर आयारो' का इतना जोर नहीं रहता । आयारो के अनुसार "जिसके पास परिग्रह नहीं हैं, उसी मुनि ने पथ को देखा है अपरिग्रह अहिंसा का सामाजिक पहलू है। भूमि और घर में ममत्व रखने वाले कुछ (अविद्यावान्) पुरुषों को समृद्धि से पूर्ण जीवन प्रिय होता है। आयारो ने परिग्रह को पाप कर्म (पावकम्म)५ बताया है। ममत्व-विसर्जन को ही विवेक और कर्म की उपशांति बताया गया है। परिग्रह का अर्थ ही मूच्छ! या संसार के प्रति आसक्ति । जिन्हें काम भोगों के प्रति आसक्ति होगी, परिग्रह के वे शिकार होंगे ही और जहां परिग्रह है, वहीं हिंसा का जन्म होगा । अपरिग्रह को यदि हम गहराई से समझे तो परिग्रह अर्थासक्ति है एवं संयम हीनता है। जहां आसक्ति है, वहीं मूर्छा है, वहीं परिग्रह है और जहां परिग्रह है, वहीं हिंसा है। परिग्रही मनुष्य, अल्प या बहुत, सूक्ष्म या स्थूल सचित् या अचित् वस्तु का परिग्रहण करते हैं। वे इन वस्तुओं में मूर्छा रखने के कारण ही परिग्रही हैं । आसक्ति अनेकों तरह की होती हैं देहासक्ति, कामसक्ति, अर्थासक्ति प्रभुत्वासक्ति आदि । असल में जो विषय है, वह संसार है और जो संसार है, वह विषय है। विषयार्थी पुरुष महान परिताप से प्रमत्त होकर वास करता है। "मेरी माता" "मेरा पिता" "मेरा स्वजन" "मेरा सहवासी", "मेरे प्रचुर उपकरण", भोजन, वस्त्र आदि में आसक्त पुरुष १. वही, ४/१-११, १२-२६, ५/९९-१०३, ८/१७-२० २. वही, ५/३१-३८, ८/३२-३३, १/५७-७४, १४८-१८६ ३. वही, २/१५७ ४. वही, २/५७ ५. वही, २/१४९ ६. वही, २/१५४ ७. वही, २२/१५५ ८. वही, ५/३१,५/३९ ९. वही, ५/३१. १०. वही, २/१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003097
Book TitleJain Darshan Chintan Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjee Singh
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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