SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७२ अस्तित्व और अहिंसा गए हैं इसीलिए मन के स्तर पर घटना का कोई प्रभाव नहीं होता। भगवान महावीर ने इस सचाई को एक सूत्र में व्यक्त किया-अण्णहा णं पासह परिहरेज्जा-जो पश्यक है, द्रष्टा है, वह भोग करेगा, सारे व्यवहार करेगा पर उसका व्यवहार दूसरों से भिन्न प्रकार का होगा। भोक्ता का व्यवहार एक व्यक्ति द्रष्टा नहीं है, भोक्ता है, वह मन के स्तर पर जिएगा । वह चल रहा है, सामने गाना सुनाई दिया, उसका दिमाग उसमें उलझ जाएगा, वह चलते-चलते ठोकर भी खा लेगा। कोई दुकान देखेगा, उसमें ठहर जाएगा। यदि कहीं लड़ाई हो रही है तो उसे देखने लग जाएगा, लड़ाई में भी भाग ले लेगा । जो घटना सामने आएगी, मन उसके साथ जुड़ जाएगा क्योंकि वह मन के स्तर पर जीता है किन्तु जो द्रष्टा है, वह इस प्रकार नहीं चलेगा। द्रष्टा के चलने की पद्धति यह है इंदियत्थे विवज्जित्ता, सज्झायं चेव पंचहा। तम्मुत्ति तप्पुरक्कारे, उवउत्ते ईरियं रिए । द्रष्टा इन्द्रियों के विषय तथा स्वाध्याय का वर्जन कर गति में तन्मय हो, उसे ही प्रमुख बनाकर चले । अंतर है दृष्टिकोण का द्रष्टा चलते समय पांचों इन्द्रियों से काम नहीं लेगा, केवल रास्ता देखने भर के लिए आंख से काम लेगा । वह चलते समय चिन्तन नहीं करेगा, स्मृति नहीं करेगा, कल्पना का अंबार नहीं लगाएगा। उसे जहां पहुंचना है, वहीं पहुंचेगा, किन्तु पूरे मार्ग में पूर्ण जागरूक बना रहेगा। द्रष्टा बोलता भी है, देखता भी है, खाता भी है, सोता भी है किन्तु उसके ये सारे कार्य वैसे नहीं होते जैसे मन के खेल खेलने वाला करता है। एक सामान्य आदमी भी वस्त्र पहनता है और एक द्रष्टा भी किन्तु दोनों की दृष्टि में अन्तर रहेगा। एक प्रसिद्ध वाक्य है--अज्ञानी आदमी भोगता है, ज्ञानी आदमी जानता है, देखता है । अज्ञानी आदमी कपड़ा पहनता है इसलिए कि अच्छा लगे । वह अपने आपको सुन्दर दिखाने के लिए, सजाने के लिए कपड़े पहनता है । ज्ञानी व्यक्ति का उद्देश्य यह नहीं होगा। वह कपड़े पहनेगा लज्जानिवारण के लिए, सर्दी और गर्मी के निवारण के लिए। जो व्यक्ति थोड़ा ऊपर उठ जाता है, वह कपड़ों पर बहुत ध्यान नहीं देता। भोक्ता की सारी शक्ति भोग की बातों को प्राप्त करने में ही खप जाती है । चेतना का विकास करने का उसे अवकाश ही नहीं मिलता। जो व्यक्ति भोग से परे की चेतना में चला जाता हैं, मन के खेल से परे चला जाता है उसका दृष्टिकोण और व्यवहार बदल जाता है। साधारण आदमी सोचता है-मैं कैसा दिख रहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003086
Book TitleAstittva aur Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy