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________________ ६४ अस्तित्व और अहिंसा तक व्यक्ति अपरम को देखता है, छोटे को देखता है तब तक वह पाप करता है । जब परम का साक्षात्कार होता है, आत्मा या परमात्मा का साक्षात्कार होता है, व्यक्ति पाप नहीं कर पाता। परम है आत्मा, परम है परमात्मा । गीता में कहा गया—परं दृष्ट्वा निवर्तते-व्यक्ति परम को देखकर पाप से निवृत्त हो जाता है। परम का एक अर्थ है-पारिणामिक भाव । जो पारिणामिक भाव का अनुभव करता है, वह पाप नहीं करता । पाप का कारण है औदयिक भाव--मोह, ज्ञानावरण और दर्शनावरण का उदय । व्यक्ति औदयिक भावावस्था में जीता है तो पाप की स्थिति आती है। जब व्यक्ति पारिणामिक भाव की स्थिति में चला जाता है, शुद्ध आत्मा की अनुभूति में चला जाता है वहां पाप की बात समाप्त हो जाती है। दृष्ट : अदृष्ट हमारे सामने दो प्रकार के तत्त्व हैं-दृश्य और अदृश्य । हमारी सारी शक्ति दृष्ट में लगी हुई है । आत्मा अदृष्ट है। आदमी कितना विचित्र है ! जो अदृप्ट है, उसे मानकर चलता है और जो दृष्ट है, उसे भोगता है। जब तक अदृष्ट दृष्ट नहीं बन जाता, अदृष्ट आत्मा का साक्षात्कार नहीं हो जाता, तब तक पाप के प्रति मन में जितनी ग्लानि होनी चाहिए, उतनी नहीं होती । व्यक्ति का ध्यान दूसरी तरफ अटका रहता है, व्यक्ति मूल बात को पकड़ कर अपनी भूल का सुधार नहीं कर पाता । जिस दिन अदृष्ट का साक्षात्कार हो जाएगा, सारी गलतियां एक साथ निकल जाएंगी। गलत और सही में ज्यादा अंतर नहीं होता। एक कोमा, एक बिन्दु, एक मात्रा बदलती है, गलत सही हो जाता है, सही गलत हो जाता है। जब तक व्यक्ति अदृष्ट को नहीं जान लेता, गलतियां बनी रहती हैं, दृष्ट की भ्रान्ति मिटती नहीं है। जो सामने दिखता है, व्यक्ति उसे ही सब कुछ मान लेता है, उसीमें उलझ जाता है । दिशा बदली, अदृष्ट दिखा, सारी स्थिति बदल जाएगी, पाप के प्रति रुझान नहीं होगा। कलम और कदम एक बने तीसरी बात है समत्व दर्शन । पाप करने की अधिकांश प्रवत्ति विषमता के कारण होती है। 'सब जीवों को अपनी आत्मा के समान समझे, षड्जीवनिकाय को अपने समान समझे—हम इस बात को पढ़ते रहे हैं किन्तु व्यवहार में नहीं ला पा रहे हैं । कलम और कदम-दोनों साथ-साथ नहीं चल रहे हैं । यदि ये दोनों साथ-साथ चलते तो दिन ही दिन होता, रात का प्रश्न ही नहीं होता । भगवान् महावीर की वाणी में संयम का जो मूल रूप है, वह यथाख्यात चारित्र है। शेष सारे पड़ाव हैं। सामायिक चारित्र एक पड़ाव है, छेदोपस्थापनीय चारित्र एक पड़ाव है। मूल है यथाख्यात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003086
Book TitleAstittva aur Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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