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________________ जैन साहित्य जैन साहित्य आगम और आगमेतर-इन दो भागों में बंटा हुआ है । साहित्य का प्राचीनतम भाग आगम कहलाता है। सर्वज्ञ और सर्वदर्शी भगवान् ने अपने आपको देखा और समूचे लोक को देखा। भगवान् ने सत्य का प्रतिपादन किया। वे महान प्रवचनकार थे, इसलिए वे तीर्थंकर कहलाए। भगवान ने बन्ध, बन्ध-हेतु, मोक्ष और मोक्ष-हेतु का स्वरूप बताया। भगवान की वाणी आगम बन गई। उनके प्रधान शिष्य गौतम आदि ग्यारह गणधरों ने उसे सूत्र-रूप में गूंथा। आगम के दो विभाग हो गए-सूत्रागम और अर्थागम। भगवान के प्रकीर्ण उपदेश को अर्थागम और उनके आधार पर की गई सूत्र-रचना को सूत्रागम कहा गया। वे आचार्यों के लिए निधि बन गए। इसलिए उसका नाम गणि-पिटक हुआ। उस गुम्फन के मौलिक भाग बारह हुए । इसलिए उसका दूसरा नाम हुआ-- द्वादशांगी। बारह अंग ये हैं- (१) आचार, (२) सूत्रकृत, (३) स्थान, (४) समवाय, (५) भगवती, (६) ज्ञाता-धर्मकथा, (७) उपासकदशा, (८) अन्तकृतदशा, (8) अनुत्तरोपपातिकदशा, (१०) प्रश्नव्याकरण, (११) विपाक, (१२) दृष्टिवाद । १. तीर्थ शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। उनमें एक अर्थ है---प्रवचन । इसी आधार पर प्रवचनकार को तीर्थकर कहा जाता था। बौद्ध साहित्य में छह तीर्थंकरों का उल्लेख मिलता है। शंकराचार्य ने ब्रह्मसूत्र के भाष्य में 'कपिल' आदि को भी तीर्थकर कहा है। सूत्र कृतांगचणि (पृ० ४७) में 'परतंत्रतीर्थकरः' और (पृ० ३२२) में 'वयं तीर्थकरा इति'-ऐसा उल्लेख मिलता। प्रवचन के आधार पर धर्म की आराधना करने वाले साधु-साध्वी और श्रावक-श्राविका को भी तीर्थ कहा जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003083
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size7 MB
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