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________________ ७३. शास्त्रोक्त आचार का पालन करने वाला, शास्त्रों का ज्ञाता, शास्त्रों का उपदेशक तथा शास्त्र में ही दृष्टि रखने वाला महायोगी परम पद - मोक्ष को पा लेता है। ७४. परिग्रहम् । जगत्त्रयी ॥ जो बाह्य और आभ्यन्तर - दोनों प्रकार के परिग्रह को तृण की भांति छोड़कर उदासीन रहता है, उसके चरणकमल की सेवा तीन लोक करता है। ७५. शास्त्रोक्ताचारकर्त्ता च शास्त्रज्ञः शास्त्रदेशकः । शास्त्रैकदृग् महायोगी, प्राप्नोति परमं पदम्॥ ७. ज्ञानसार चयनिका : १३७ मूर्च्छामुक्तस्य योगिनः । का पुद्गलनियन्त्रणा ? जिसने पुत्र, पत्नी आदि को त्याग दिया है, जो मूर्च्छा से मुक्त है तथा जो ज्ञानमात्र से प्रतिबद्ध है, ऐसे योगी के पुद्गलों का नियंत्रण कैसा ? ७६. यस्त्यक्त्वा तृणवद् बाह्यमान्तरं च उदास्ते तत्पदांभोजं, पर्युपास्ते ७७. त्यक्तपुत्रकलत्रस्य, चिन्मात्रप्रतिबद्धस्य, सर्वं, जगदेव परिग्रहः । जगदेवाऽपरिग्रहः ॥ मूर्च्छाछन्नधियां मूर्च्छया रहितानां तु, जिनकी बुद्धि मूर्च्छा से आच्छादित है, उनके लिए सारा जगत् परिग्रह है और जो मूर्च्छा से रहित हैं, उनके लिए यह सारा जगत् ही अपरिग्रह है। सन्ध्येव दिनरात्रिभ्यां बुधैरनुभवो दृष्टः, जिस प्रकार दिन और रात से संध्या पृथक् है, उसी प्रकार ज्ञानी पुरुषों ने केवलज्ञान और श्रुतज्ञान से भिन्न केवलज्ञानरूपी सूर्योदय से पूर्व होनेवाले अरुणोदय के समान अनुभव की प्रतीति की है। For Private & Personal Use Only Jain Education International केवलश्रुतयोः पृथक् । केवलार्कारुणोदयः ॥ www.jainelibrary.org
SR No.003079
Book TitleJain Yoga ke Sat Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size5 MB
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