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________________ १३६ : जैन योग के सात ग्रंथ लोकसंज्ञारूपी महानदी के अनुस्रोत में बहने वाले कौन नहीं हैं ? किन्तु प्रतिस्रोत में बहने वाले तो केवल राजहंस जैसे एक महामुनि ही होते हैं। ६८. श्रेयोऽर्थिनो हि भूयांसो, लोके लोकोत्तरे न च। स्तोका हि रत्नवणिजः, स्तोकाश्च स्वात्मसाधकाः॥ लौकिक और लोकोत्तर-दोनों मार्गों में मोक्षार्थियों की संस्था न्यून ही है। जैसे रत्नवणिक् कम होते हैं, वैसे ही अपनी आत्मा की साधना करने वाले साधक भी कम होते हैं। ६९. चर्मचक्षुभृतः सर्वे, देवाश्चावधिचक्षुषः। सर्वतश्चक्षुषः सिद्धाः, साधवः शास्त्रचक्षुषः॥ सभी प्राणी चर्मचक्षु वाले हैं। देवता अवधिज्ञानरूपी चक्षु से संपन्न हैं, सिद्ध सर्वतः चक्षु हैं और साधु शास्त्ररूपीचक्षु वाले हैं। ७०. शासनात् त्राणशक्तेश्च, बुधैः शास्त्रं निरुच्यते। वचनं वीतरागस्य, तत्तु नान्यस्य कस्यचित्॥ जिसमें शासन की और त्राण की शक्ति हो, वह शास्त्र है। यह निर्वचन विद्वानों द्वारा सम्मत है। वह (शासन और त्राण की) शक्ति वीतराग के वचन में ही होती है, इसलिए वही शास्त्र हो सकता है, अन्य पुरुष का वचन शास्त्र नहीं हो सकता। ७१. अदृष्टार्थेऽनुधावन्तः, शास्त्रदीपं विना जड़ाः। प्राप्नुवन्ति परं खेदं, प्रस्खलन्तः पदे पदे॥ अज्ञानी शास्त्रदीप के बिना अदृष्ट के पीछे दौड़ते हुए पग-पग पर स्खलित होते हैं तथा अत्यधिक कष्ट पाते हैं। ७२. अज्ञानाहिमहामन्त्रं, स्वाच्छन्द्यज्वरलंघनम्।। धर्मारामसुधाकुल्यां, शास्त्रमाहुमहर्षयः॥ महर्षियों ने शास्त्र को अज्ञानरूपी सर्प-विष के लिए महामंत्र, स्वच्छन्दता ज्वर के निवारण के लिए लंघन तथा धर्मरूपी उद्यान में अमृत की नहर के समान माना है। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003079
Book TitleJain Yoga ke Sat Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size5 MB
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