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________________ 166 / अश्रुवीणा (96) दुःखस्याङ्को द्रवक पृषता द्रावयेयुः परास्ते, नैतच्चित्रं भवति परुषः कोऽपि तद्वान् विचित्रम्। अस्याश्चेतो विसदृशतमं सौकु मार्य बभाज, तस्थौ दीर्घ समयमतुलं यत् कठोरं निसर्गात्।। अन्वय-द्रवक पृषताः दुःखस्याङ्कः ते परान् द्रावयेयुः न एतत् चित्रम् भवति। कोऽपि तद्वान् परुषः विचित्रम्। यत् अस्याः चेतः दीर्घम् समयम् निसर्गात् अतुलम् कठोरम् (तत्) विसदृशतमं सौकुमार्यम् बभाज। अनुवाद-आँसू की बूंदें दुःख का चिह्न है। वे दूसरों को द्रवित कर दें इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। लेकिन कोई वैसी स्थिति में भी कठोर बना रहे- यह विचित्र बात है / चन्दनबाला का चित्त दीर्घकाल से दुःख सहने के कारण स्वभाव से अधिक कठोर हो गया था, वह आज विसदृश (असाधारण) सौकुमार्य को धारण करने लगा (परिपूर्ण हो गया)। व्याख्या-द्रवक पृषता-वाष्पकणा: अनुलवा:वा, आँसूके बूंद। पृषत-बूंद, द्रवक-आँसू। अंक-चिह्न, चित्रम् आश्चर्यम्। परुष काठिन्यम्। कठोर। उपचार वक्रता का उदाहरण। काव्यलिंग अलंकार का सुन्दर उदाहरण। (97) छिन्नो बन्धः करचरणयो त्मनः किन्तु गूढः, सौन्दर्य तद् वपुषि हसितं प्राक्तनं नात्मनस्तु / धारा सृष्टा सकरुणदृशोः स्रोतसो नाऽसुखानाम, पश्यन्त्यूज़ पलमपि न सा निम्नभावेषु मूढा॥ अन्वय-करचरणयोः बन्धः छिन्नः किन्तु आत्मनो गूढः / तत् प्राक्तनम् सौन्दर्यम् वपुसि हसितम् न आत्मनः। सकरुणदृशोः धारा मृष्टा न असुखानाम् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003074
Book TitleAshruvina
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size7 MB
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