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________________ अश्रुवीणा / 165 (95) प्राप्तेष्टानां प्रभवति मतौ कोप्यपूर्वः प्रमोदस्तमिन् मग्ना अपि सुपटवः प्रस्मरन्तीति दुःखम्। प्रस्मृत्यैतन्निकृति-कुटिलं कः सुखं प्राप लोके, दुःखे यस्य स्मृतिरविकला तेन तत्तीर्णमाशु // अन्वय-प्राप्तेष्टानाम् मतौ कोऽपि अपूर्व: प्रमोदः प्रभवति तस्मिन् मग्नाः सुपटवः अपि दुःखम् प्रस्मरन्ति इति / एतत् निकृति-कुटिलम् प्रस्मृत्य लोके कःसुखम् प्राप / तेन दुःखे यस्य स्मृति:अविकला तत् आशु तीर्णम् (भवति)। ___ अनुवाद-इष्ट वस्तु को प्राप्त करने वाले व्यक्तियों के मन में अनिर्वचनीय और अपूर्व प्रमोद उत्पन्न होता है। उसमें मग्न होकर विचक्षण व्यक्ति भी अपने दुःखों को भूल जाते हैं / परन्तु इस अधम कुटिल दु:ख को भूलकर संसार में कौन सुख प्राप्त कर सकता है। इसलिए जिसे दुःख की स्मृति अविकल बनी रहती है वही दुःख को शीघ्र पार कर सकता है। व्याख्या-संसार में जब कभी अचिन्त्य फल की प्राप्ति होती है, व्यक्ति अपूर्व आनन्द के सागर में निमज्जित होने लगता है। सुख में तल्लीन होने से दुःख की स्मृति समाप्त हो जाती है। लेकिन सुख के खत्म होते ही केवल दुःख ही अवशिष्ट रहता है। परन्तु जो लोग सुख काल में भी दुःख को याद रखते हैं वे दुःख को पार कर जाते हैं / प्रमोदः प्रभवति- उपचार वक्रता का उत्कृष्ट निदर्शन है / तस्मिन्-इति-काव्यलिंग अलंकार / तेन दु:खे- अर्थान्तरन्यास अलंकार। कः सुखं प्राप्त में अर्थापति अलंकार। प्रमोदः प्रभवति अनुप्रास।आशु-शीघ्र।प्रस्मरन्ति-विस्मरन्ति ।अविकला-अक्षीणा, अनवचिता वा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003074
Book TitleAshruvina
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size7 MB
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