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________________ ११२ : एसो पंच णमोक्कारो पहुंचने की। मेरे भीतर का ज्ञान भी इस प्रक्रिया से दूसरे तक पहुंचता है। मेरा ज्ञान मेरे भीतर रहता है और दूसरे का ज्ञान दूसरे के भीतर रहता है, किन्तु शब्द के माध्यम से हम ज्ञान का विनिमय कर देते हैं, एक-दूसरे के ज्ञान को अपना बना लेते हैं। यह हमारा ज्ञान-मीमांसा और शब्दशास्त्रीय मीमांसा का पक्ष है। इसका दूसरा पक्ष साधना का है, मंत्रशास्त्र का है। मंत्रशास्त्र के अनुसार शब्द की पहली अवस्था है—संजल्प, जो तेज स्वर में बोला जाता है। यह भाष्यावस्था ---बोली जाने वाली अवस्था है। दूसरी अवस्था है—अन्तर्जल्प, जब शब्द बाहर सुनाई नहीं देता अथवा उच्चरित नहीं होता तब अन्तर्जल्प होता है। तीसरी अवस्था ज्ञानात्मक है। वहां अन्तर्जल्प भी समाप्त हो जाता है, भाषा ज्ञान के रूप में शेष रह जाती है। मंत्रशास्त्र में वाक् को बैखरी, वाक्-प्रयोग (वचनयोग) को मध्यमा और ज्ञानावरण के विलय या ज्ञान के उपयोग को पश्यंती कहा जाता है। वह ज्ञान जब लब्धि में चला जाता है, ज्ञान की सहज क्षमता में बदल जाता है तब वह परावाक बन जाता है। ज्ञान की यह सारी यात्रा अक्षर के द्वारा होती है। अक्षर का कभी क्षरण नहीं होता। प्रत्येक मनोविज्ञानी व्यक्ति में अक्षर का बोध होता है। सोते-जागते वह ज्ञान अव्यक्त या व्यक्त रूप में उपस्थित रहता है। अक्षर तीन प्रकार के होते हैं१. संज्ञा अक्षर-अक्षर की आकृति । २. व्यंजन अक्षर-अक्षर का उच्चारण। ३. लब्धि अक्षर-अक्षर का ज्ञान। ज्ञानात्मक क्षमता वाला अक्षर लब्धि अक्षर होता है। व्यंजन अक्षर वाक् के रूप में प्रकट होता है। अपने वाच्य अर्थ को बाह्य जगत् में प्रकट करता है। संज्ञा अक्षर एक निश्चित आकार का होता है, जो लिपि में प्रयुक्त होता है। लिपि का भी बड़ा महत्त्व है। हम जितनी भी रेखाएं खींचते हैं उन रेखाओं का बड़ा महत्त्व होता है। छोटी-सी रेखा खींचते हैं और उसमें एक विशेष प्रकार की क्षमता आ जाती है। आकार और मुद्रा का भी मूल्य कम नहीं है। आदमी सिंहासन की मुद्रा में बैठता है। एक आकार बनता है और ठीक पिरामिड का आकार बन जाता है। पिरामिड के आकार में कोस्मिक रे को पकड़ने की क्षमता आ जाती है। हम उस दुनिया में जीते हैं जहां Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003073
Book TitleEso Panch Namukkaoro
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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