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________________ 87 कर्म-फल भोगने की कला जीवन जीना चाहिए, उसे सारे पदार्थों को भोगना चाहिए। यह तर्क दिया जाता है-भगवान् ने पदार्थ बनाए किसलिए हैं? कुछ लोग अति तर्क में भी चले जाते हैं। उनसे कहा जाए-मांस नहीं खाना चाहिए। उत्तर मिलेगा-भगवान ने मांस बनाया किसलिए है? संतजन त्याग का उपदेश देते हैं। जो लोग भोग में लिप्त हैं, वे इस उपदेश का मजाक उड़ाते हुए कहते हैं-संतों का यह उपदेश-त्याग करो, इसका त्याग करो, उसका त्याग करो-मान लें तो इन भोग्य पदार्थों का क्या होगा? यदि हम इन सब भोगों को नहीं भोगें तो पदार्थ किसलिए बनाए जाते हैं? इस तर्क के साथ इस तथ्य को जानना जरूरी है-पुण्य के साथ-साथ पाप का फल भी जड़ा हुआ है। यदि पण्य के फल को अधिकाधिक भोगना है तो पाप-फल को भोगने की तैयारी भी होनी चाहिए। बाएं हाथ में घोड़ा है तो दाएं हाथ में गधा भी हो सकता है। हमारी दुनिया का यह नियम नहीं है कि हाथ में केवल घोड़ा ही आए, गधा न आए। सख भोगने के लिए जितनी अकलाहट है, दःख भोगने की भी उतनी तैयार रहनी चाहिए। सुखी होना दुःख को आमंत्रण देना है एक सुन्दर मार्ग बतलाया गया-जब पुण्य का विपाक आता है, उदय आता है तब सुविधा भी मिलती है। व्यक्ति उसे भोगता है किन्तु वह उसमें इतना आसक्त न बने, सुख भोगने में ही लिप्त न हो जाए, जिससे पुण्य के फल का भोग सघन पाप का कारण न बने। बहुत लोग ऐसे होते हैं, जो बड़े सुख को ही नहीं, खाने-पीने जैसे छोटे सुख को भी नहीं छोड़ सकते। सुख को छोड़ा नहीं जा सकता पर सुख-भोग के समय यह चेतना जाग जाए- पुण्य के सुख भोग कर सुखी होना दुःख को आमंत्रण देना है। यह बोध आवश्यक है। हम पण्य के उदय होने पर प्रत्येक सुख को भोगें ही नहीं और पाप का परिणाम आए तो उसे भी नहीं भोगें। अशुभ कर्म कैसे भोगें व्यक्ति को क्रोध आता है। क्रोध अशुभ कर्म का विपाक है। बाहरी निमित्त मिलता है और क्रोध उभर आता है। कोई निमित्त बना, किसी ने गाली दी, थप्पड़ मारा और क्रोध उभर आया। इसका मूल कारण है-मोहनीय कर्म का विपाक। क्रोध चाहे निमित्त से उभरे या उपादान के कारण-उसे न भोगना धर्म की कला है। अशुभ कर्म का विपाक आए और क्रोध न आए, यह है क्रोध को न भोगना, अशुभ कर्म को न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003072
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size6 MB
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