SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संस्कृति के दो प्रवाह कुछ श्रमख जगत् को अण्डकृत मानते थे । उनके अभिमतानुसार जब यह जगत् पदार्थ - शून्य था तब ब्रह्मा ने जल में अण्डा उत्पन्न किया । वह अण्डा बढ़ते-बढ़ते जब फट गया तब ऊर्ध्व लोक और अधोलोक - ये दो भाग हो गए। उनमें सब प्रजा उत्पन्न हुई । इस प्रकार पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश आदि की उत्पत्ति हुई ६८ माहणा समणा एगे, आह अंडकडे जगे । असो तत्तमकासी य, अयाणंता मुसं वए । ' वृत्तिकार के अनुसार त्रिदण्डी आदि श्रमण ऐसा मानते थे । ४. आत्मा और परलोक 'आत्मा' शब्द ऋग्वेद' - काल से ही प्रचलित रहा है । किन्तु इसके अर्थं का क्रमशः विकास हुआ है और तब अन्त में उपनिषदों में यह ब्रह्म के समकक्ष परम तत्त्व के रूप में व्याख्यात हुआ है । उदाहरणार्थं बृहदारण्यकोपनिषद् (१.१,१ ) में इसका अर्थ 'शरीर' है । वहीं ( ३।२,१३ ) पर यह वैयक्तिक आत्मा को उद्दिष्ट करता है, फिर परम तत्त्व के अर्थ में तो यह प्रायः आता रहा है । * ए० ए० मैकडोनल ने लिखा है - " ऐसा विश्वास किया जाता है कि अग्नि अथवा 'शवगर्त ' ( कब्र ) केवल मृत शरीर को ही विनष्ट करते हैं, क्योंकि मृत व्यक्ति के वास्तविक व्यक्तित्व को अनश्वर ही माना गया है । यह वैदिक धारणा उस पुरातन विश्वास पर आधारित है कि आत्मा में शरीर से अपने को अचेतनावस्था तक में अलग कर लेने की शक्ति होती है और व्यक्ति की मृत्यु के बाद भी आत्मा का अस्तित्व बना रहता है । इसीलिए एक सम्पूर्ण सूक्त (१०, ५८ ) में प्रत्यक्षतः मृतवत् पड़े सुप्त व्यक्ति की आत्मा (मनस् ) से बाहर भ्रमण कर रहे स्थानों से पुनः शरीर में लौट आने की स्तुति की गई है । बाद में विकसित पुनर्जन्म के सिद्धान्त का वेदों में कोई संकेत नहीं मिलता, किन्तु एक ब्राह्मण में यह उक्ति मिलती है कि जो लोग विधिवत् संस्कारादि नहीं करते, वे मृत्यु के बाद पुनः जन्म लेते हैं और बार-बार मृत्यु का ग्रास बनते रहते है (शतपथ ब्राह्मण, १०, ४, ३)।५ १. सूत्रकृतांग, १।११६७ । २ . वही, ११६७, वृत्ति: श्रमणाः - त्रिदण्डिप्रभृतय एके केचन पौराणिका: न सर्वे । ३. ऋग्वेद, १|१|१५|१; १०।१०७ ७ । ४. वैदिक कोश, पृ० ३६ । ५. वैदिक माइथोलॉजी ( हिन्दी अनुवाद), पृ० ३१६ | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy