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________________ श्रमण और वैदिक परम्परा की पृष्ठभूमि केशबल ने उन्हें आत्म-शुद्धि के स्नान का उपदेश दिया। उन्होंने कहा'अकलुषित एवं आत्मा का प्रसन्न-लेश्या वाला धर्म मेरा नद (जलाशय) है। ब्रह्मचर्य मेरा शान्ति-तीर्थ है, जहां नहा कर मैं विमल, और सुशीतल होकर कर्म रजों का त्याग करता है। यह स्नान कुशल पुरुषों द्वारा दष्ट है । यह महास्नान है, अतः ऋषियों के लिए प्रशस्त है । इस धर्म-नद में नहाए हुए महर्षि विमल और विशुद्ध होकर उत्तम-अर्थ (मुक्ति) को प्राप्त - इस प्रकार बौद्ध और निर्ग्रन्थ स्नान से आत्म-शुद्धि नहीं मानते। किन्तु कुछ श्रमण स्नान को आत्म-शुद्धि का साधन मानते थे। एकदण्डी और त्रिदण्डी परिव्राजक स्नानशील और शुचिवादी थे। त्रिदण्डी परिव्राजक श्रमण थे-यह निशीथ भाष्य की चणि में उल्लिखित है। सूत्रकृतांग (१।१।३।८) की वृत्ति से भी उनके श्रमण होने की पुष्टि होती है । मूलाचार में भी तापस, परिव्राजक, एकदण्डी, त्रिदण्डी आदि को 'श्रमण' कहा गया है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि 'स्नान आत्म-शुद्धि का साधन नहीं'-- इस विषय में सब श्रमण-संघ एक मत नहीं थे। ३. कत्तं वाद जैन और बौद्ध जगत् को किसी सर्वशक्तिसम्पन्न सत्ता के द्वारा निर्मित नहीं मानते। भगवान् महावीर ने कहा- 'जो लोग जगत् को कृत बतलाते हैं, वे तत्त्व को नहीं जानते । यह जगत् अविनाशी है-पहला था, है और होगा। बौद्ध सिद्धांत में किसी मूल कारण की व्यवस्था नहीं है। बौद्ध नहीं मानते कि ईश्वर, महादेव या वासुदेव, पुरुष, प्रधानादिक किसी एक कारण से सर्व जगत् की प्रवृत्ति होती है। यदि भावों की उत्पत्ति एक कारण से होती तो सर्व जगत् की उत्पत्ति युगपत् होती, किन्तु हम देखते हैं कि भावों का क्रम संभव है। -- -- १. उत्तराध्ययन, १२।४६-४७ । २. मूलाचार, पंचाचाराधिकार, ६२, वृत्ति : परिव्राजका एकदण्डीत्रिदण्ड्यादयः स्नानशीलाः शुचिवादिनः । ३. निशीथ भाष्यचूर्णि, भाग २, पृ० २,३,३३२ । ४. मूलाचार, पंचाचाराधिकार, ६२ । ५. सूत्रकृतांग, १।१।६८ । ६. बौद्ध धर्म-दर्शन, पृ० २२३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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