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________________ २३६ संस्कृति के दो प्रवाह फल-धर्मध्यान का जो फल बतलाया गया है, वह उत्कृष्ट स्थिति में पहंच शुक्लध्यान का फल बन जाता है। इसका अंतिम फल मोक्ष है। ध्यान के व्यावहारिक फल के विषय में कुछ मतभेद मिलता है। ध्यानशतक के अनुसार ध्यान से मन, वाणी और शरीर को कष्ट होता है, वे दुर्बल होते हैं और उनका विदारण होता है।' इस अभिमत से जान पड़ता है कि ध्यान से शरीर दुर्बल होता है। दूसरा अभिमत इससे भिन्न है। उसके अनुसार ध्यान से ज्ञान, विभूति, आयु, आरोग्य, सन्तुष्टि, पुष्टि और शारीरिक धैर्य-ये सब प्राप्त होते हैं। एकान्तदृष्टि से देखने पर ये दोनों तथ्य विपरीत जान पड़ते हैं, पर इन दोनों के साथ भिन्नभिन्न अपेक्षा जुड़ी हुई है। जिस ध्यान में श्रोती भावना या चिन्तन की अत्यन्त गहराई होती है, उससे शारीरिक कशता हो सकती है। जिस ध्यान में आत्म-संवेदन के सिवाय शेष चिन्तन का अभाव होता है. उससे शारीरिक पुष्टि हो सकती है। ध्यान और प्राणायाम जैन आचार्य ध्यान के लिए प्राणायाम को आवश्यक नहीं मानते। उनका अभिमत है कि तीव्र प्राणायाम से मन व्याकूल होता है। मानसिक व्याकुलता से समाधि का भंग होता है। जहां समाधि का भंग होता है, वहां ध्यान नहीं हो सकता।'समाधि के लिए श्वास को मंद करना आवश्यक है। श्वास और मन का गहरा सम्बन्ध है। जहां मन है, वहां श्वास है और जहां श्वास है, वहां मन है। ये दोनों क्षीर-नीर की भांति परस्पर घुले-मिले हैं। मन की गति मंद होने से श्वास की और श्वास की गति मंद होने से मन की गति अपने आप मंद हो जाती है। ध्यान और समत्व ___ समता और विषमता का हमारे जीवन पर गहरा प्रभाव है । शरीर सम अवस्थित होता है, तब सारा स्नायु-संस्थान ठीक काम करता है और वह विषम रूप में स्थित होता है, तब स्नायु-संस्थान की क्रिया अव्यवस्थित हो जाती है। १. ध्यानशतक, ६६ २. तत्त्वानुशासन, १९८ । ३. महापुराण, २११६५,६६ । ४. योगशास्त्र, ५२: मनो यत्र मरुत्तत्र, मरुद् यत्र मनस्ततः । अतस्तुल्यक्रियावेती, संवीतो क्षीरनीरवत् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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